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________________ सुवर्णभूमि में कालकाचार्य the same time from Western India. He had another name Ca-la-cha-lo (Kia-lo-cho-lo = Kālācārya)." ९ डॉ. बागची आगे अपने पत्र में लिखते हैं कि ' क्यों कि मारजीवक चीनी आधार से ई० स० २६० और ई० स० ३०६ के बीच में वहाँ दौरा लगाता था इस लिए अनाम के इस ग्रन्थ में पायी जाती हकीकत ठीक नहीं लगती । यह ठीक है कि जीवक का समय ई० स० २६० से ३०६ मानना चाहिये न कि ई० स०१६८१८८ जो अनाम के ग्रन्थ का कहना है । किन्तु ई० स० १४ वीं शताब्दी में बने हुए इस ग्रन्थ के कर्ता को पूरी हकीकत वास्तविक रूप में मिलनी मुश्किल है। फिर भी जिस तरह जीवक के नाम और टोन्किन में जाने की बात विश्वसनीय है इसी तरह कालाचार्य के नाम जाने की हकीकत सम्भवित हो सकती है । १७ क्या यह नाम की परम्परा में इन्हीं कालकाचार्य की स्मृति तो नहीं जो विद्या-मन्त्र- निमित्त के ज्ञाता थे, जो सुवर्णभूमि में विचरे थे, जिनका गुफाओं में और पेड़ों के नीचे रहना मानना युक्तिसङ्गत है और जो पश्चिमी भारत के रहनेवाले थे ? वे जन्म से ब्राह्मण हो सकते हैं, कई सुप्रसिद्ध जैनाचार्य जन्म से ब्राह्मण थे। जैन साधु गुफात्रों में भी रहते थे। और पेड़ों के नीचे रहने वाली हकीकत कालकाचार्य के बारे में सच्ची है। उपर्युक्त पञ्चकल्पभाष्य में स्पष्ट लिखा है कि सातवाहन नरेन्द्र कालकाचार्य को मिले तत्र श्रार्य कालक वटवृक्ष के नीचे निविष्ट थे । कालकाचार्य पेड़ो के नीचे रहते थे। अनाम के ग्रन्थ का यह कहना कि कालाचार्य गुफाओं में और पेड़ों के नीचे रहते थे वह इस वस्तु का द्योतक है कि वे पुरुष गृहस्थी नहीं किन्तु साधु-जीवन गुजारने वाले थे। और जब हमें प्राचीन जैनग्रन्थों (उत्तराध्ययननिर्युक्ति, बृहत्कल्पभाष्य इत्यादि) की साक्षी मिलती है कि कालकाचार्य सुवर्णभूमि में गये थे तब नाम परम्परा के कालाचार्य वाली हकीकत में इसी कालकाचार्य के सुवर्णभूमि गमन की स्मृति मानना उचित होगा । कालाचार्य या कालकाचार्य के सुवर्णभूमिगमन का कारण भी दिया गया है । कालक की ग्रन्थरचनायें जिनको पाटलिपुत्र के सङ्घ ने भी प्रमाणित की थीं उन्हें खुद उनके शिष्य भी ( उज्जैन में) नहीं सुनते थे । आर्य कालक इसी से निर्विण्ण हो कर देशान्तर गये । सुवर्णभूमि में जहाँ उनके मेधावी श्रुतज्ञानी प्रशिष्य सागरश्रमण थे वहाँ जाना श्रार्य कालक ने उचित माना । नाम की परम्परा का जो निर्देश है कि कालाचार्य पश्चिमी भारत के ब्राह्मण थे उसको भी सोचना चाहिए। कालक-कथानकों से यह तो स्पष्ट है कि इनका ज्यादा सम्बन्ध उज्जैन, भरूच (भरुकच्छ) और प्रतिष्ठानपुर से रहा । श्रतः श्रार्य कालक पश्चिमी भारत के हो सकते हैं, और पूर्व में अनाम परम्परा उनको पश्चिमी भारत के मान ले यह स्वाभाविक है । कालाचार्य कालकाचार्य के जन्म से ब्राह्मण होने के विषय में हम देख चुके हैं कि यह बात असम्भव नहीं, कई प्रभाविक जैन श्राचार्य पहले श्रोत्रिय ब्राह्मण पण्डित थे । और काल के विषय में एक कथानक भी है जिससे वह ब्राह्मणजातीय थे ऐसा मान सकते हैं। आवश्यकचूर्णि और कहावली (ई. स० १२०० के पहिले रचा हुआ, शायद ई० स० ६ वीं शताब्दि में रचित) में एक कथानक है जिस में बताया गया है कि कालक तुरुमिणी नगरी में भद्रा नामक ब्राह्मणी के सहोदर थे । भद्रा के पुत्र दत्त ने उस नगरी के राजा को पदभ्रष्ट करके राज्य ले लिया और उसने बहुत यज्ञ किये। इस दत्त के सामने कालकाचार्य ने यज्ञों कि निन्दा की और यज्ञ का बूरा फल कहा। इस से दत्त ने आचार्य को कैद किया। आचार्य के भविष्यकथन के अनुसार राजा दत्त बूरे हाल मरा । १९ अ यज्ञफल और दत्त के भविष्य १६. डा. बागचीजी द्वारा दी गई प्रस्तुत सूचना के लिए मैं उनका ऋणी हूँ । १६अ. देखो, कालकाचार्य कथा ( श्री. नवाब प्रकाशित) पृ० ४० आवश्यक - चूर्णि भाग १, पृ. ४६५-४६६ में भद्रा को " धिग्जातिणी " कही है। भद्रा ब्राह्मणधर्मी होने से इसके लिए जैन लेखक ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002101
Book TitleSuvarnabhumi me Kalakacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmakant P Shah
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1956
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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