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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
स्पष्ट हो जाता है कि नयचन्द्र का नायक गढ़वाल जैत्रचन्द्र ( जयचन्द्र ) ऐति हासिक था ! उन्होंने कर्पूरमंजरी के ढङ्ग का सट्टक बनाने के लिए कथानक में कुछ और जोड़ा है ।
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यद्यपि लेखक ने प्रस्तुत कृति को एक तरह से कर्पूरमंजरी से श्रेष्ठ बताया है पर वास्तव में यह कर्पूरमंजरी का अनुकरण है । वसन्तवर्णन, विदूषक और दासी के बीच कलह, विरही राजा का द्वारपाल द्वारा प्रकृति-वर्णन की ओर चित्त ले जाना आदि कर्पूरमञ्जरी के वर्णनों की याद दिलाते हैं । कुछ भाव तो थोड़े अन्तर के साथ दोनों में समान हैं, यथा विदूषक का स्वप्नदर्शन तथा अशोक, बकुल और कुरबक द्वारा राजा की वासनाओं का उत्तेजित होना और प्रेमपत्र का आशय आदि ।
यद्यपि कर्पूरमञ्जरी का कथानक छोटा है पर उसकी थोड़ी भी तुलना रम्भामञ्जरी से नहीं की जा सकती । इस सट्टक का उद्देश्य क्या है, यह अन्त तक नहीं ज्ञात होता और न फल की ही प्राप्ति हो पाती है। कथा का अन्त किस प्रकार हुआ, यह जिज्ञासा अन्त तक बनी रहती है । यह एक खण्डित सट्टक है । रम्भामञ्जरी के प्राकृत पद्य उतने प्रभावयुक्त नहीं जैसे कि कर्पूरमञ्जरी के । नयचन्द्र संस्कृत में भावाभिव्यक्ति करने में बड़े पण्डित थे और उनके कुछ पद्य सचमुच में उनकी कवित्वशक्ति के परिचायक हैं । दृश्यकाव्य के रूप में रम्भामञ्जरी का कोई अच्छा प्रभाव नहीं है । सभ्य दर्शकवृन्द के समक्ष रंगस्थल पर एक राजा का एक के बाद दो रानियों से कामविह्वलता दिखलाना कैसे अच्छा हो सकता है ? इसके शृङ्गारपूर्ण भाव भी गम्भीर और उदात्त नहीं हैं। चित्रण में मी प्रभाव की अपेक्षा दिखावा अधिक है ।
कवि ने नट, सूत्रधार, प्रतिहारी के द्वारा राजा की प्रशंसा में संस्कृत, प्राकृत एवं मराठी छन्दों का प्रयोग किया है । यह एक महत्त्वपूर्ण शैली है कि नयचन्द्र ने संस्कृत बोलने वाले कुछ पात्रों के मुख से प्राकृत पद्य भी कहलाये हैं और प्राकृत बोलने वालों से संस्कृत पद्य कहलाये हैं । सट्टक में संस्कृत का प्रयोग शास्त्रसम्मत न होकर कुछ व्यतिक्रमसूचक है ।
रचयिता एवं रचनाकाल - इसके कर्ता नयचन्द्रसूरि हैं। इनका अन्य ऐतिहासिक ग्रन्थ ' हम्मीर महाकाव्य ' है । उक्त काव्य के प्रसंग में इनका विस्तृत
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