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ललित वाङ्मय
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प्रचलित छन्दों में युग्मविमला, मणिगुणनिकरा, चण्डवृष्टिप्रयातोदण्डक, अर्णवाख्यदण्डक, व्यालाख्यदण्डक आदि हैं।
रचयिता और रचनाकाल-ग्रन्थ के अन्त में दी गई प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इस महाकाव्य के रचयिता जिनपालगणि हैं जो चन्द्रकुल की प्रवरवज्रशाखा के मुनि थे। वे खरतरगच्छ के संस्थापक जिनेश्वरसूरि की परम्परा में जिनपतिसूरि के शिष्य थे। खरतरगच्छ की बृहद्गुर्वावलि के अनुसार जिनपाल ने सं० १२२५ में दीक्षा ग्रहण की थी, सं० १२६९ में जिनपतिसूरि ने उन्हें उपाध्याय पद प्रदान किया था, सं० १२७३ में पं० मनोजानन्द को हराकर जिनपाल उपाध्याय ने नगरकोट के राजा पृथ्वीचन्द्र से जयपत्र प्राप्त किया था। उनका स्वर्गवास सं० १३११ में हुआ था। अभयकुमारचरित (सं० १३१२) के रचयिता चन्द्रतिलकगणि को जिनपाल उपाध्याय ने धार्मिक ग्रन्थों को पढ़ाया था। श्री मो० द० देसाई के अनुसार जिनपाल उपाध्याय ने सं० १२६२ में षटस्थानकवृत्ति की रचना करने के बाद इस महाकाव्य की रचना की थी। इस काव्य की प्राचीन हस्तलिखित प्रति सं० १२७८ वैशाख वदी ५ की मिलती है। इससे सनत्कुमारचरित का रचनाकाल सं० १२६२ से १२७८ के मध्य का समय माना जा सकता है। कवि ने उक्त काव्य की रचना भक्तिभावना से प्रेरित होकर की थी।
जयन्तविजय :
इस महाकाव्य में मगधदेश के राजा जयन्त और उनकी विजयों का वर्णन किया गया है। इसमें १९ सर्ग हैं और यह महाकाव्य 'श्री' शब्दाङ्कित है। इसमें पद्य संख्या १५४८ है जो अनुष्टुभमान से २२०० श्लोक-प्रमाण है।
१. खरतरगच्छ-बृहद्गुर्वावलि (सि. जै० प्र०), पृ० ४४-५०. २. अभयकुमारचरित, प्रशस्ति, श्लो० ३८-४०. ३. जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ० ३९५. ४. सर्ग २४. ११२. ५. काव्यमाला, ७५, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई; जै० ध० प्र० स० भावनगर;
जिनरस्नकोश, पृ. १३३, इसके महाकाव्यत्व के लिए देखें-संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान, पृ० ३०० प्रभृति.
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