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कथा-साहित्य
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पंचाख्यानोद्धार-दूसरी रचना तपागच्छीय कृपाविजय के शिष्य मेघविजयकृत 'पंचाख्यानोद्धार है जो सं० १७१६ में रचा गया था। यह बालकों को नीतिशास्त्र की शिक्षा देने के लिए लिखा गया था। अनेक नूतन कहानियों का इसमें समावेश है। अन्तिम रत्नपाल की कथा पंचतंत्र के अन्य किसी संस्करण में उपलब्ध नहीं है। यह संस्करण वडगच्छ के रत्नचन्द्रगणि के शिष्य वत्सराजगणिकृत गुजराती पंचाख्यानचौपई पर आधारित है।
पंचाख्यानवार्तिक-इसकी रचना कीर्तिविजयगणि के चरण-सेवक जिनविजयगणि ने की है। वि० सं० १७३० में फलौधी नगरी में इसकी रचना की गई थी। यह पुरानी गुजराती में है, श्लोक संस्कृत में हैं। १९वीं कथा में बया और बन्दर की और ३०वीं में खरगोश और मदोन्मत्त सिंह की कहानी है। इसमें सोमदेव के नीतिवाक्यामृत और हेमचन्द्राचार्य के लध्वहन्नीतिशास्त्र नामक ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है।
शुकद्वासप्ततिका-नीतिकथा पर पंचतंत्र के समान दूसरे ग्रन्थ शुकसप्ततिका का जैन पाठान्तर भी मिलता है । सं० १६३८ में गुणमेरुसूरि के शिष्य रत्नसुन्दरसूरि ने शुकद्वासप्ततिका की रचना की है। इसे रसमञ्जरी तथा शुकसप्ततिका' भी कहते हैं। एक अज्ञातकतृक शुकद्वासप्ततिका कथा का भी उल्लेख मिलता है। ___ इस कथा संग्रह में शुक द्वारा ७० या ७२ कहानियाँ शीलरक्षा के लिए कही गई हैं।
१. वही; सिंघी जैन ग्रन्थमाला से प्रकाशित देवानन्दकाव्य की भूमिका;
कीथ, हिस्ट्री माफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर, पृ० २६०; विण्टरनित्स,
हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर, भाग ३, पृ० ३२५. २. इसका प्रकाशन जे०. हर्टल ने लाइजिग से १९२२ में किया है। ३.५. जिनरत्नकोश, पृ० ३८६.
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