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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास काव्य है। यह अवान्तर कथाओं से भरा हुआ है। इसकी भाषा सरल और सुबोध है । सभी सर्गों में अनुष्टुप् छन्द का प्रयोग हुआ है । सर्गान्त में शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका आदि छन्दों का प्रयोग हुआ है। इसके रचयिता खरतरगच्छीय जिनरत्नसूरि के शिष्य वाचनाचार्य विवेकसमुद्रगणि हैं। इसकी रचना उन्होंने खंभात में सं० १३२५ में दीपावली के दिन की थी। रचना का अनुरोध वाहड़पुत्र बोहित्य ने किया था। इस कृति का संशोधन प्रत्येकबुद्धचरित के रचयिता जिनरत्नसरि और लक्ष्मीतिलक उपाध्याय ने किया था। विवेकसमुद्रगणि की अन्य रचनाओं में जिनप्रबोधचतुःसप्ततिका तथा पुण्यसारकथानक (सं० १३३४) मिलते हैं। खरतरगच्छबृहद्गुर्वावलि' के अनुसार विवेकसमुद्र की दीक्षा वैशाख शुक्ल चतुर्दशी सं० १३०४ में, वाचनाचार्य की उपाधि सं० १३२३ में और स्वर्गवास ज्येष्ठ शुक्ल द्वितीया सं० १३७८ में हुआ था।
नरवर्मचरित्र पर दूसरी रचना विनयप्रभ उपाध्याय कृत मिलती है जो सं० १४१२ में रची गई थी। यह एक लघु कृति है। इसका ग्रन्थान ८०० प्रमाण है। विनयप्रभ खरतरगच्छ के जिनकुशलसूरि के शिष्य थे।
तृतीय रचना ग्रन्थान ५०० प्रमाण मुनिसुन्दरसूरिकृत का उल्लेख मिलता है। ___चतुर्थ रचना खरतरगच्छीय पुण्यतिलक के शिष्य विद्याकीर्ति ने सं० १६६९ में रची है।
गुणवर्मचरित-अभिषेक आदि सत्रह प्रकार की अर्हन्तपूजा के माहात्म्य को प्रकट करने के लिए गुणवर्मा और उसके १७ पुत्रों की कथा की रचना हुई है।
१. जिनरत्नकोश, पृ० ४२७, जिनरत्नकोश में इसका अपर नाम नरवर्ममहा
राजचरित न देने की भूल हुई है। इसकी प्रति बृहत् भण्डार, जैसलमेर
(प्रति सं० २७४) में है। २. पृ० १९-६५. ३. जिनरस्नकोश, पृ. २०४; हीरालाल हंसराज, जामनगर, १९०९. .. वही, पृ. २०५. ५. अप्रकाशित, मणिधारी. जिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी स्मृतिग्रन्थ, द्वितीय
खण्ड, पृ० १३८ ६. जिनरत्नकाश, पृ० १०५; प्रकाशित-अहमदाबाद, १९०१.
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