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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास श्रीपालचरित पर एक नाटक' भी धर्मसुन्दर अपर नाम सिद्धसूरि ने सं० १५३१ में रचा है।
अपभ्रंश भाषा में कवि रइधू और पं० नरसेन के सिरिपालचरिउ में दिगम्बर सम्प्रदाय सम्मत कथानक दिया गया है।
गुजराती और हिन्दी भाषा के कवियों के लिए यह चरित बड़ा ही रोचक रहा है।
भविष्यदत्तकथा-श्रीपालकथा के समान भविष्यदत्त की लौकिक कथा को श्रुतपंचमी के माहात्म्य के लिए धर्मकथा में परिणत किया गया है ।
कथावस्तु-भविष्यदत्त एक वणिक् पुत्र है। वह अपने सौतेले भाई बन्धुदत्त के साथ व्यापार हेतु परदेश जाता है, वहाँ धन कमाता है और विवाह भी कर लेता है परन्तु उसका सौतेला भाई उसे बार-बार धोखा देकर दुःख पहुँचाता है, यहाँ तक कि उसे एक द्वीप में अकेला छोड़कर उसकी पत्नी के साथ घर लौट आता है और उससे विवाह करना चाहता है । किन्तु इसी बीच भविष्यदत्त भी यक्ष की सहायता से घर लौट आता है, अपना अधिकार प्राप्त करता है और राजा को खुशकर राजकन्या से भी विवाह करता है । अन्त में एक मुनि से पूर्वभव के वृत्तान्त सुन विरक्त होकर पुत्र को राज दे मुनि हो जाता है।
इस कथा पर अनेक रचनाएँ लिखी गई हैं जिनका परिचय ज्ञानपंचमी कथा पर लिखी रचनाओं के प्रसंग में दिया गया है।
मणिपतिचरित (मुनिपतिचरित) इस चरित्रात्मक कथाग्रन्थ में मणिपति (नृप ) मुनि के चरित्र के साथ उनके तथा कुंचिक सेठ के बीच संवाद के द्वारा १६ कथाएँ दी गई हैं जिनका संकलन एक पद्य में इस प्रकार है : हस्ती हारः सिंहो मेतार्यः सुकुमारिका,
भद्रोक्षा गृहकोकिल: सचिवावटुकोऽपिच । नागदत्तो वर्द्धकिश्च चारभट्यथ गोपका,
सिंही शीतार्दितहरिः काष्ठर्षिः षोडशो मतः ॥
१. वही, पृ० ३९४. २. वही, पृ० ३००, ३१०, इस काव्य का वास्तविक नाम मणिपति
चरित है। प्राकृत में मणिवई को पीछे लेखकों ने मुणिवई करके मुनिपति (संस्कृत) नाम दे दिया है। इस बात का स्पष्टीकरण हेमचन्द्र ग्रन्थमाला, अहमदाबाद से प्रकाशित इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में किया गया है।
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