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कथा-साहित्य
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कलन्दर, कागद, खरशान, मोहरि, बीबी, मसीत, मीर, मुलाण ( मुल्ला), मुशलमान, हज, हरीमज आदि । इसकी भाषा और शब्दों का अध्ययन एक पृथक विषय है। मूल शब्दों का संस्कृतीकरण करने से कई स्थानों पर अर्थ लगाने में बड़ी गड़बड़ी होती है ।
रचयिता और रचनाकाल-इस ग्रन्थ के उपर्युक्त शुभशीलगणि ही रचयिता हैं। इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में रचना-संवत् विक्रम सं० १५२१ दिया गया है।' उक्त प्रशस्ति में शुभशीलगणि ने अपने को रत्नमण्डनसूरि का शिष्य बताया है पर इस कथाकोश के एक अधिकार की प्रशस्ति में लक्ष्मीसागर के शिष्य के रूप में उल्लेख किया गया है :
लक्ष्मीसागरसूरीणां पादपद्मप्रसादतः।
शिष्येण शुभशीलेन ग्रन्थ एष विधीयते ।। ३ ।। ये लक्ष्मीसागर शुभशीलगणि के या तो प्रगुरु थे या उनके गुरु मुनिसुन्दर के गुरूभाई थे। अपने अन्य ग्रन्थों में शुभशील ने अपने को मुनिसुन्दरसूरि का शिष्य बताया है । संभवतः कथाकार ने कृतज्ञतावश विद्या, आश्रय और दीक्षा देनेवाले तीन प्रकार के गुरुओं का स्मरण किया है।
१. कथाकोश- इसे 'कल्पमंजरी' भी कहते हैं। इसकी रचना आगमगच्छ के जयतिलकसूरि ने की है। इसका ग्रन्थाग्र २९० श्लोक प्रमाण है । इसका समय १५वीं शताब्दी प्रतीत होता है ।
२. कथाकोश-इसे 'व्रतकथाकोश' भी कहते हैं। इसकी एक, हस्तलिखित प्रति जयपुर के पाटोदी के मन्दिर के शास्त्रभण्डार में उपलब्ध है। इसमें विभिन्न व्रतों सम्बंधी कथाओं का संग्रह है। ग्रन्थ की पूरी प्रति उपलब्ध न होने से यह अभी तक निश्चित नहीं हो सका कि इसमें कितनी व्रतकथाएँ लिखी गई थी।' इसके रचयिता प्रसिद्ध भट्टारक सकल कीर्ति है जिनका अन्यत्र परिचय दिया गया है।
१. विक्रमार्काद् विधु-द्वीषु-चन्द्र (१५२१) प्रमितवत्सरे ।
अमुं व्यधात् प्रबंधं तु शुभशीलाभिधो बुधः ॥ २. मुनिसुन्दरसूरीशविनेय : शुभशीलभाक-विक्रमचरित्र, प्रशस्ति, पद्य १२. ३. जिनरत्नकोश, पृ० ६५. ४. वही, पृ० ६५, ३६८; राजस्थान के जैन सन्तः व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पृ० १४.
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