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प्रकरण १
प्रास्ताविक
जैन काव्य - साहित्य से हमारा तात्पर्य उस विशाल साहित्य से है जो काव्यशास्त्रसम्मत विधि-विधान को यथासम्भव मानकर महाकाव्य, कथा ( प्राकृत में काव्य को कथा नाम से कहते हैं ) तथा काव्य की अनेक विधाओं में अर्थात् दृश्यकाव्य एवं श्रव्यकाव्य - शास्त्रीयकाव्य, गद्यकाव्य, चम्पूकाव्य, दूतकाव्य, गीतिकाव्य आदि के रूप में लिखा गया हो। इसे हम प्रमुख तीन खण्डों में विभक्त कर विवेचन करेंगे। पहले खण्ड में पौराणिक महाकाव्य और सभी प्रकार की कथाएँ रहेंगी । द्वितीय खण्ड में ऐतिहासिक साहित्य यथा ऐतिहासिक काव्य, प्रबन्ध-साहित्य, प्रशस्तियाँ, पट्टावलियाँ, प्रतिमा-लेख, अन्य अभिलेख, तीर्थमालाएँ, विज्ञप्तिपत्रादि का विवेचन होगा । तृतीय खण्ड में ललित वाङ्मय अर्थात् शास्त्रीय महाकाव्य, गद्यकाव्य, चम्पू, नाटक आदि अलंकार तथा रस- शैली पर लिखा हुआ साहित्य समाविष्ट होगा । यह विशाल साहित्य अनेक भाषाओं में लिखा गया है पर प्रस्तुत भाग में भाषा की दृष्टि से हमने प्राकृत तथा संस्कृत में उपलब्ध को ही ग्रहण किया है। अपभ्रंश या अन्य भाषाओं में उपलब्ध इस प्रकार का साहित्य अगले भागों का विषय होगा ।
सर्वप्रथम जैनों के परम्परा सम्मत वाङ्मय में 'काव्यसाहित्य' की क्या स्थिति यह जान लेना परमावश्यक है ।
है
भगवान् महावीर के समय से लेकर विक्रम की २० वीं शताब्दी के अन्त तक लगभग २५०० वर्षों के दीर्घकाल में जैन मनीषियों ने प्राकृत और संस्कृत के जिस विपुल वाय का निर्माण किया है उसे सुविधा की दृष्टि से, आधुनिक विद्वानों ने, पुरानी परिभाषाओं का ध्यान रखकर प्रमुख तीन भागों में बाँटा है : पहला आगमिक, दूसरा अनुआगमिक और तीसरा आगमेतर । आगमिक साहित्य आज हमें आचारांग आदि ४५ आगमों तथा उनपर लिखे विशाल टीकासाहित्यनिर्युक्ति, चूर्णि, भाष्य और टीकाओं के रूप में उपलब्ध है । अनुआगम साहित्य दिगम्बरमान्य शौरसेनी आगम — कसायपाहुड, षट्खण्डागम तथा कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के रूप में पाया जाता है । इन दोनों प्रकार का साहित्य इस बृहद् इतिहास के पूर्व भागों में प्रकाशित हो चुका है।
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