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________________ ५८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास बन्धविधान चार प्रकार का है : प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । महाबन्ध : महाबन्ध खण्ड प्रकृतिबन्धादि उपर्युक्त चार अधिकारों में विभक्त है। प्रकृतिबन्ध अधिकार में निम्नलिखित विषय हैं : प्रकृतिसमुत्कीर्तन, सर्व-नोसर्वबन्ध प्ररूपण, उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टबन्धप्ररूपण, जघन्य-अजधन्यबन्धप्ररूपण, सादि-अनादिबन्धप्ररूपण; ध्रुव-अध्रुवबन्धप्ररूपण, बन्धस्वामित्वविचय, एक जीव की अपेक्षा से कालानुगम, अन्तरानुगम, सन्निकर्षप्ररूपण, भंगविचय, भागाभागानुगम, परिमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, अनेक जीवों की अपेक्षा से कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम, अल्पबहुत्वप्ररूपण । स्थितिबन्ध दो प्रकार का है : मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध और उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्ध । मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध के चार अनुयोगद्वार हैं : स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा, आबाधाकाण्डकप्ररूपणा और अल्पबहुत्व । इस सम्बन्ध में ये चौबीस अधिकार ज्ञातव्य हैं : १. अद्धाच्छेद, २. सर्वबन्ध, ३. नोसर्वबन्ध, ४. उत्कृष्टबन्ध, ५. अनुत्कृष्टबन्ध, ६. जघन्यबन्ध, ७. अजधन्यबन्ध, ८. सादिबन्ध, ९. अनादिबन्ध, १०. ध्रुवबन्ध, ११. अध्रुवबन्ध, १२. स्वामित्व, १३. बन्धकाल, १४. बन्धान्तर, १५. बन्धसन्निकर्ष, १६. नाना जीवों की अपेक्षा से भंगविचय, १७. भागाभाग, १८. परिमाण, १९ क्षेत्र, २०. स्पर्शन, २१. काल, २२. अन्तर, २३. भाव, २४. अल्पबहुत्व । इनके अतिरिक्त भुजगारबन्ध, पदनिक्षेप, वृद्धिबन्ध, अध्यवसानसमुदाहार और जीवसमुदाहार द्वारा भी मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध का विचार किया गया है। उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्ध का प्रतिपादन भी इसी प्रक्रिया से किया गया है। अनुभागबन्ध भी दो प्रकार का है : मूलप्रकृतिअनुभागबन्ध और उत्तरप्रकृतिअनुभागबन्ध । मूलप्रकृतिअनुभागबन्ध के दो अनुयोगद्वार हैं : निषेकप्ररूपणा और स्पर्धकप्ररूपणा । निषेकप्ररूपणा की अपेक्षा से आठों कर्मों के जो देशघातिस्पर्धक हैं उनके प्रथम वर्गणा से प्रारम्भ कर निषेक हैं जो आगे बराबर चले गये हैं। चार घातिकर्मों के जो सर्वघातिस्पर्धक हैं उनके भी प्रथम वर्गणा से प्रारम्भ कर निषेक हैं जो आगे बराबर चले गये हैं। स्पर्धकप्ररूपणा की अपेक्षा से अनन्तानन्त अविभागप्रतिच्छेदों के समुदायसमागम से एक वर्ग होता है, अनन्ता १. सू० ७९७. २. महाबंध, पु० १. ३. महाबंध, पु० २-३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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