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________________ कर्मप्राभृत ५५ ज्ञानावरणीय आदि वेदनाएं परम्परबन्ध हैं । शब्द नयों की अपेक्षा से अवक्तव्य हैं। वेदनसन्निकर्ष दो प्रकार का है : स्वस्थानवेदनसन्निकर्ष और परस्थानवेदनसन्निकषं । स्वस्थानवेदनसन्निकर्ष के दो भेद हैं : जघन्य स्वस्थानवेदनसन्निकर्ष और उत्कृष्ट स्वस्थानवेदनसन्निकर्ष । उत्कृष्ट स्वस्थानवेदनसन्निकर्ष द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से चार प्रकार का है। जिसके ज्ञानावरणीय वेदना द्रव्य की अपेक्षा से उत्कृष्ट होती है उसके वह क्षेत्र की अपेक्षा से उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमतः अनुत्कृष्ट होती है तथा असंख्येयगुणहीन होती है। काल की अपेक्षा से उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यून होती है । भाव की अपेक्षा से भी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट उभयरूप होती है । उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट षट्स्थानपतित होती है अर्थात् अनन्तभागहीन, असंख्येयभागहीन, संख्येयभागहीन, संख्येयगुणहीन, असंख्येयगुणहीन और अनन्तगुणहीन होती है । जिसके ज्ञानावरणीय वेदना क्षेत्र की अपेक्षा से उत्कृष्ट होती है उसके वह द्रव्य की अपेक्षा से उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमतः अनुत्कृष्ट होती है तथा चतुःस्थानपतित होती है : असंख्येयभागहीन, संख्येयभागहीन, संख्येयगुणहीन और असंख्येयगुणहीन ।२ इसी प्रकार शेष प्ररूपण के विषय में भी यथावत् समझ लेना चाहिए। वेदनपरिमाणविधान का तीन अनुयोगद्वारों में विचार किया गया है : प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्याश्रय अथवा क्षेत्रप्रत्यास । प्रकृत्यर्थता की अपेक्षा से ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्म की असंख्येय लोकप्रमाण प्रकृतियाँ हैं। वेदनीय कर्म की दो प्रकृतियाँ हैं। इसी प्रकार अन्य कर्मों की प्रकृतियों का भी निरूपण किया गया है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अन्तराय कर्म की एक-एक समयप्रबद्धार्थता-प्रकृति तीस कोटाकोटि सागरोपम को समयप्रबद्धार्थता से गुणित करने पर प्राप्त हो उतनी है। इसी प्रकार अन्य कर्मों की समयप्रबद्धार्थता-प्रकृतियों का भी प्रतिपादन किया गया है। जो मत्स्य एक हजार योजनप्रमाण है, स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य तट पर स्थित है, वेदनासमुद्धात १. सू० १-११ ( वेदनअनन्तरविधान ). २. सू० १-१७ ( वेदनसन्निकर्ष विधान ). ३. सू० १८-३२०. ४. पर्यायाथिक नय की अपेक्षा से-धवला, पु० १२, पृ० ४८१. ५. द्रव्याथिक नय की अपेक्षा से-वही. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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