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________________ '४८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कुछ जीव मिथ्यात्वसहित तियंञ्चगति में जाकर मिथ्यात्वसहित ही वहाँ से निकलते हैं, कुछ मिथ्यात्वसहित जाकर सासादनसम्यक्त्वसहित निकलते हैं, कुछ मिथ्यात्वसहित जाकर सम्यक्त्वसहित निकलते हैं, कुछ सासादनसम्यक्त्वसहित जाकर मिथ्यात्वसहित निकलते हैं, कुछ सासादनसम्यक्त्वसहित जाकर सासादनसम्यक्त्वसहित ही निकलते हैं तथा कुछ सासादनसम्यक्त्वसहित जाकर सम्यक्त्वसहित निकलते हैं। सम्यक्त्वसहित वहाँ जाने वाले सम्यक्त्वसहित ही वहाँ से निकलते हैं । इसी प्रकार अन्य गतियों के प्रवेश-निष्क्रमण के विषय में भी यथावत् समझ लेना चाहिए।' मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि नारकी नरक से निकल कर कितनी गतियों में जाते हैं ? दो गतियों में जाते हैं : तिर्यञ्चगति में तथा मनुष्यगति में । तिर्यञ्चगति में जाने वाले नारकी पंचेन्द्रियों में जाते हैं, एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में नहीं। पंचेन्द्रियों में भी संज्ञियों में जाते हैं, असंज्ञियों में नहीं। संज्ञियों में भी गर्भोपक्रान्तिकों में जाते हैं, सम्मूच्छिमों में नहीं। गर्भोपक्रान्तिकों में भी पर्याप्तकों में जाते हैं, अपर्याप्तकों में नहीं। पर्याप्तकों में भी संख्येय वर्ष की आयु वालों में जाते हैं, असंख्येय वर्ष की आयु वालों में नहीं। इसी प्रकार मनुष्यगति में जाने वाले नारकी भी गर्भोपक्रान्तिकों, पर्याप्तकों एवं संख्येय वर्ष की आयु वालों में ही जाते हैं । सम्यक्-मिथ्यादृष्टि नारकी सम्यक्-मिथ्यात्व गुणस्थानसहित नरक से नहीं निकलते । सम्यग्दष्टि नारकी नरक से निकल कर मनुष्यगति में ही आते हैं । मनुष्यों में भी गर्भोपक्रान्तिकों में ही आते हैं, इत्यादि । यह सब ऊपर की छः पृथ्वियों के नारकियों के विषय में है। सातवीं पृथ्वी के नारकी केवल तिर्यञ्चगति में ही आते हैं, इत्यादि । इसी प्रकार अन्य गतियों के विविध प्रकार के जीवों के विषय में भी यथावत् समझ लेना चाहिए। यहां तक कर्मप्राभूत के प्रथम खण्ड जीवस्थान का अधिकार है। इसके बाद क्षुद्रकबन्ध नामक द्वितीय खण्ड प्रारम्भ होता है । क्षुद्रकबन्ध : क्षुद्रकबन्ध में स्वामित्व आदि ग्यारह अनुयोगद्वारों की अपेक्षा से बन्धकोंकर्मों का बन्ध करने वाले जीवों का विचार किया गया है। प्रारम्भ में यह ० ७६-८५. ३. सू० ८६-१००. १. सू० ५३-७५. ४. सू० १०१-२४३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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