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कर्मप्राभृत
संज्ञा की अपेक्षा से संज्ञियों में मिथ्यादृष्टि देवों से कुछ अधिक हैं, सासादनसम्यग्दृष्टि यावत् क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ सामान्यवत् हैं । असंज्ञी अनन्त हैं।'
आहार की अपेक्षा से आहारकों में मिथ्यादृष्टि यावत् सयोगिकेवली सामान्यवत् है । अनाहारकों में मिथ्यादृष्टि आदि कार्मणकाययोगियों के सदृश हैं तथा अयोगिकेवली सामान्यवत् हैं ।
३. क्षेत्रानुगम-क्षेत्रानुगम में भी दो प्रकार का कथन होता है : ओघ अर्थात् सामान्य की दृष्टि से और आदेश अर्थात् विशेष की दृष्टि से ।
सामान्य की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि सर्वलोक में रहते हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि यावत् अयोगिकेवली लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । सयोगिकेवली लोक के असंख्यातवें भाग में अथवा असंख्येय भागों में अथवा सर्वलोक में रहते हैं।४
विशेष की अपेक्षा से नरकगति में उत्पन्न मिथ्यादृष्टि यावत् असंयतसम्यग्दृष्टि लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं, इत्यादि ।
४. स्पर्शनानुगम-स्पर्शनानुगम की अपेक्षा से भी दो प्रकार का कथन होता है : सामान्य की दृष्टि से और विशेष की दृष्टि से । सामान्य की दृष्टि से मिथ्यादृष्टि जीवों ने सारा लोक स्पर्श किया है । सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों ने लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है, इत्यादि ।६ विशेष की दृष्टि से नारकियों में मिथ्यादृष्टियों ने लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है, इत्यादि ।
५. कालानुगम-काल की अपेक्षा से सामान्यतया मिथ्यादृष्टि नाना जीवों की अपेक्षा से सर्वदा होते हैं। एक जीव की अपेक्षा से काल तीन प्रकार का है : अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । इनमें से सादि-सान्त जघन्यतया अन्तर्मुहुर्त एवं उत्कृष्टतया अर्धपुद्गलपरिवर्तन से कुछ कम है। सासादनसम्यग्दृष्टि नाना जीवों की अपेक्षा से जघन्यतया एक समय तक तथा उत्कृष्टतया पल्योपम के असंख्यातवें भाग पर्यन्त होते हैं। एक जीव की अपेक्षा से जघन्य काल एक समय तथा उत्कृष्ट काल छः आवलिकाएँ हैं। इसी प्रकार सम्यक्-मिथ्यादृष्टि आदि के विषय में भी यथावत् समझना चाहिए । विशेष की अपेक्षा से नारकियों में
१. सू० १८५-१८९. ४. सू० २-४. ७. सू० ११-१८५.
२. सू० १९०-१९२. ३. सू० १ ( पुस्तक ४). ५. सू० ५-९२. ६. सू० १-१० ( स्पर्शनानुगम). ८. सू० १-३२ ( कालानुगम ).
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