________________
कर्म प्राभृत
२९
षट्खण्डागम के प्रारम्भिक भाग सत्प्ररूपणा के प्रणेता आचार्य पुष्पदन्त हैं तथा शेष समस्त ग्रन्थ के रचयिता आचार्य भूतबलि हैं | धवलाकार ने पुष्पदन्तरचित जिन बीस सूत्रों का उल्लेख किया है वे सत्प्ररूपणा के बीस अधिकार ही हैं क्योंकि उन्होंने आगे स्पष्ट लिखा है कि भूतबलि ने द्रव्यप्रमाणानुगम से अपनी रचना प्रारम्भ की । सत्प्ररूपणा के बाद जहाँ से संख्याप्ररूपणा अर्थात् द्रव्यप्रमाणानुगम प्रारंभ होता है वहाँ पर भी धवलाकार ने कहा है कि अब चौदह जीवसमासों के अस्तित्व को जान लेने वाले शिष्यों को उन्हीं जीवसमासों के परिमाण के प्रतिबोधन के लिए भूतबलि आचार्य सूत्र कहते हैं : संपहि चोदसहं जीवसमासाणमत्थित्तमवगदाणं सिस्साणं तेसि चेव परिमाणपडिबोहण भूदबलियाइरियो सुत्तमाह ।
आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि का समय विविध प्रमाणों के आधार पर वीर - निर्वाण के पश्चात् ६०० और ७०० वर्ष के बीच सिद्ध होता है । कर्मप्राभृत का विषय-विभाजन :
ર
कर्मप्राभृत के छहों खण्डों की भाषा प्राकृत ( शौरसेनी ) है | आचार्य पुष्पदन्त ने १७७ सूत्रों में सत्प्ररूपणा अंश तथा आचार्य भूतबलि ने ६००० सूत्रों में शेष सम्पूर्ण ग्रन्थ लिखा ।
कर्मप्राभृत के छः खण्डों के नाम इस प्रकार हैं : १. जीवस्थान, २. क्षुद्रकबन्ध, ३. बंधस्वामित्वविचय. ४. वंदना, ५. वर्गणा, ६. महाबन्ध ।
जीवस्थान के अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वार तथा नौ चूलिकाएं हैं आठ अनुयोगद्वार इनसे सम्बन्धित हैं : १. सत्, २. संख्या ( द्रव्यप्रमाण ), ३. क्षेत्र, ४. स्पर्शन, ५. काल, ६. अन्तर, ७. भाव, ८. अल्पबहुत्व | नौ चूलिकाएँ ये हैं : १. प्रकृतिसमुत्कीर्तन, २. स्थानसमुत्कीर्तन, ३-५ प्रथम - द्वितीय तृतीय महादण्डक, ६. उत्कृष्टस्थिति, ७, जघन्यस्थिति, ८. सम्यक्त्वोत्पत्ति, गति - आगति | इस खंड का परिमाण १८००० पद है ।
क्षुद्रकबन्ध के ग्यारह अधिकार हैं : १. स्वामित्व, २. काल, ३. अन्तर, ४. भंगविचय, ५. द्रव्यप्रमाणानुगम, ६. क्षेत्रानुगम, ७. स्पर्शनानुगम, ८. नाना - जीव-काल, ९. नाना - जीव - अन्तर, १०. भागाभागानुगम, ११. अल्पबहुत्वानुगम ।
९. वही, पुस्तक ३, पृ० १.
२ . वही, पुस्तक १ प्रस्तावना, पृ० २१-३१.
>
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org