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२.
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आठ स्पर्श-गुरु, लघु, मृदु, कर्कश, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष; १३. चार आनुपूर्वियां-देवानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, तियंञ्चानुपूर्वी और नरकानुपूर्वी; १४. दो गतियां-शुभविहायोगति और अशुभविहायोगति । प्रत्येक प्रकृतियों में निम्नोक्त आठ प्रकृतियां समाविष्ट हैं : पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, अगुरुलधु, तीर्थकर, निर्माण और उपघात । त्रसदशक में निम्न प्रकृतियाँ हैं : त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यश-कीर्ति । स्थावरदशक में असदशक से विपरीत दस प्रकृतियाँ समाविष्ट हैं : स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयशःकीर्ति । इस प्रकार नाम कम की उपर्युक्त एक सौ तीन (७५ पिण्डप्रकृतियां + ८ प्रत्येक प्रकृतियां+१० त्रसदशक + स्थावरदशक ) उत्तरप्रकृतियां हैं। इन्हीं प्रकृतियों के आधार पर प्राणियों के शारीरिक वैविध्य का निर्माण होता है।
___ गोत्र कर्म की दो उत्तरप्रकृतियाँ हैं : उच्च और नीच। जिस कर्म के उदय से प्राणी उत्तम कुल में जन्म ग्रहण करता है उसे उच्चर्गोत्र कर्म कहते हैं। जिस कर्म के उदय से प्राणी का जन्म नीच कुल में होता है उसे नीचर्गोत्र कर्म कहते हैं । उत्तम कुल का अर्थ है संस्कारी एवं सदाचारी कुल । नीच कुल का अर्थ है असंस्कारी एवं आचारहीन कुल।
अन्तराय कर्म की पांच उत्तरकृतियाँ हैं : दानान्तराय लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय। जिस कर्म के उदय से दान करने का उत्साह नहीं होता वह दानान्तराय कम है। जिस कर्म का उदय होने पर उदार दाता को उपस्थिति में भी दान का लाभ अर्थात प्राप्ति न हो सके वह लाभान्तराय कर्म है। अथवा योग्य सामग्री के रहते हुए भी अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति न होना लाभान्तराय कर्म का कार्य है। भोग की सामग्री मौजूद हो और भोग करने की इच्छा भी हो फिर भी जिस कर्म के उदय से प्राणी भोग्य पदार्थों का भोग न कर सके वह भोगान्तराय कर्म है। इसी प्रकार उपभोग्य वस्तुओं का उपभोग न कर सकना उपभोगान्तराय कर्म का फल १. नाम कर्म से सम्बन्धित विशेष विवेचन के लिए देखिए-कर्मग्रन्थ प्रथम
भाग अर्थात् कर्मविपाक (पं० सुखलालजीकृत हिन्दी अनुवादसहित ), पृ० ५८-१०५; Outlines of Jaina Philosophy (M. L.
Mehta ), पृ० १४२-५; Outlines of Karma in Jainism ( M. L. Mehta ), पृ० १०-१३.
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