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कर्मवाद
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रूप से प्रसिद्ध है । आशय शब्द विशेषकर योग तथा सांख्य दर्शनों में उपलब्ध है । धर्माधर्म, अदृष्ट और संस्कार शब्द विशेषतया न्याय एवं वैशेषिक दर्शन में प्रचलित हैं । दैव, भाग्य, पुण्य-पाप आदि अनेक ऐसे शब्द हैं जिनका साधारणतया सब दर्शनों में प्रयोग किया गया है ।" इस प्रकार चार्वाक को छोड़कर सभी भारतीय दर्शनों ने किसी-न-किसी रूप में अथवा किसी-न-किसी नाम से कर्म की सत्ता स्वीकार की है । कर्म आत्मतत्त्व का विरोधी है । यह आत्मा के ज्ञानादि गुणों के प्रकाशन में बाधक होता है। कर्म का सम्पूर्ण क्षय होने पर ही आत्मा अपने यथार्थ रूप में प्रतिष्ठित होती है-अपने वास्तविक रूप में प्रकाशित होती है । आत्मा की इसी अवस्था का नाम स्वरूपावस्था अथवा विशुद्धावस्था है । आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि है । जीव पुराने कर्मों का क्षय करता हुआ नवीन कर्म का आर्जन करता रहता है । जब तक प्राणी के पूर्वोपार्जित समस्त कर्म नष्ट नहीं हो जाते एवं नवीन कर्मों का आगमन बन्द नहीं हो जाता तब तक उसकी भवबन्धन से मुक्ति नहीं होती । एक बार समस्त कर्मों का विनाश हो जाने पर पुनः कर्मोपार्जन नहीं होता क्योंकि उस अवस्था में कर्मबन्धन का कोई कारण विद्यमान नहीं रहता । आत्मा की इसी अवस्था को मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण अथवा सिद्धि कहते हैं ।
कर्मबन्ध का कारण :
जैन - परम्परा में कर्मोपार्जन अथवा कर्मबन्ध के सामान्यतया दो कारण माने गये हैं : योग और कषाय । शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति को योग कहते हैं । क्रोधादि मानसिक आवेग कषायान्तर्गत है । यों तो कषाय के अनेक भेद हो सकते हैं किन्तु मोटे तौर पर उसके दो भेद किये गये हैं: राग और द्वेष | रागद्वेषजनित शारीरिक एवं मानसिक प्रवृत्ति ही कर्मबन्ध का कारण है । वैसे तो प्रत्येक क्रिया कर्मोपार्जन का कारण होती है किन्तु जो क्रिया कषायजनित होती है। उससे होनेवाला कर्मबन्ध विशेष बलवान् होता है जबकि कषायरहित क्रिया से होने वाला कर्मबन्ध अति निर्बल एवं अल्पायु होता है । उसे नष्ट करने में अल्प शक्ति एवं अल्प समय लगता है । दूसरे शब्दों में योग और कषाय दोनों ही कर्मबन्ध के कारण हैं किन्तु इन दोनों में प्रबल कारण कषाय ही है ।
१. देखिये - पं० सुखलालजीकृत कर्मविपाक के हिन्दी अनुवाद की
प्रस्तावना, पृ० २३.
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