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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास दण्डक नामक नगर को आभ्यन्तर दोष के कारण जलाने से जिनलिंगी बाहु का रौरव नरक में पड़ना, सम्यक्त्व आदि से पतित होने पर दीपायन श्रमण का भवभ्रमण, युवतियों से परिवृत्त होने पर भी भावश्रमण शिवकुमार की अल्प संसारिता, श्रतकेवली भव्यसेन' को सम्यक्त्व के अभाव में भावश्रमणत्व की अप्राप्ति तथा तुसमास ( तुषमाष ) की उद्घोषणा करनेवाले शिवभूति की भावविशद्धि के कारण मुक्ति-इस प्रकार विविध दृष्टान्त यहाँ दिये गये हैं ।
१८० क्रियावादी, ८४ अक्रियावादी, ६७ अज्ञानवादी और ३२ वैनयिकइस प्रकार कुल ३६३ पाखण्डियों का निर्देश करके उनके मार्गको उन्मार्ग कहकर जिनमार्ग में मन को लगाने का उपदेश दिया है। __ शालिसिथ मत्स्य ( तन्दुल-मत्स्य ) अशुद्ध भाव के कारण महानरक मे गया, ऐसा ८६ वीं गाथा में कहा है।
मोक्षप्राप्ति के लिए आत्मा के शुद्ध स्वरूप का विचार करना चाहिए। कर्मरूप बीज का नाश होने पर मोक्ष मिलता है । आत्मा जब परमात्मा बनता है तब वह ज्ञानी, शिव, परमेष्ठी, सर्वज्ञ, विष्णु, चतुर्मुख बौर बुद्ध कहा जाता है ( देखिए, गाथा १४९ )। रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए पांच ज्ञान की विचारणा, कषाय और नोकषाय का त्याग, तीर्थंकर-नामकर्म के उपार्जन के सोलह कारणों का परिशीलन, बारह प्रकार की तपश्चर्या का सेवन, शुद्ध चारित्र का पालन, परीषहों का सहन, स्वाध्याय, बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन, जीव आदि सात तत्व और नौ पदार्थों का ज्ञान, चौदह गुणस्थानों की विचारणा तथा दशविध वैयावृत्त्य इत्यादि का इसमें उल्लेख है । मन शुद्ध हो तो अर्थ आदि चार पुरुषार्थ सिद्ध हो सकते हैं ऐसा १६२ वें पद्य में कहा है। १. पृ० १९८ पर श्रुतसागर ने कहा है कि भव्यसेन ग्यारह अंगों का धारक
होने से चौदह पूर्व के अर्थ का ज्ञाता था। इसी से यहां उसे श्रुतकेवली
कहा है। २. तुष अर्थात् छिलके से जिस तरह माष अर्थात् उड़द भिन्न है, उसी
तरह शरीर से आत्मा भिन्न है इस बात के सूचक तुषमाष का उच्चारण करनेवाले केवल छः प्रवचनमात्रा के ज्ञाता परम वैराग्यशाली शिवभूति थे, ऐसा श्रुतसागर ने टीका ( पृ० २०७ ) में कहा है। यह श्वेताम्बरों
को ‘मा तुस मा रुस' कथा का स्मरण कराती है। ३. यह बात १२४ वीं गाथा में कही गई है। यह तत्त्वार्थसूत्र ( अ० १०,
सू०७) के स्वोपज्ञ भाष्य के आठवें श्लोक का स्मरण करती है ।
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