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________________ १६० जैन साहित्य का बृहद इतिहास क्रियाओं ( भावनाओं ), पांच समितियों और तीन गुप्तियों का पालन-यह निरागार अर्थात् साधुओं का चारित्र है। पांच महाव्रतों में से अहिंसा आदि प्रत्येक महाव्रत की पाँच-पांच भावनाएँ गिनाई हैं। सम्यक्त्वप्राप्त जीव ज्ञानमार्ग पर है, वह पापाचरण नहीं करता और अन्त में मोक्ष प्राप्त करता है ऐसा इसमें कहा गया है। इसकी सातवीं गाथा 'अतिचार की आठ गाथा' के नाम से प्रसिद्ध श्वेताम्बरीय प्रतिक्रमणसूत्र की तीसरी गाथा के रूप में देखी जाती है। टोका-चारित्तपाहुड पर श्रुतसागर की टीका है। ३. सुत्तपाहुड (सूत्रप्राभूत )-यह २७ गाथाओं को कृति है । इसमें कहा है कि जैसे सूत्र ( डोरे ) से युक्त सूई हो तो वह नष्ट नहीं होती-गुम नहीं होती, वैसे ही सूत्र का ज्ञाता संसार में भटकता नहीं है-वह भव अर्थात् संसार का नाश करता है । सूत्र का अर्थ तीर्थंकर ने कहा है। जीवादि पदार्थों में से हेय और उपादेय को जो जानता है वह 'सदृष्टि' है । तीर्थंकरों ने अचेलकता और पाणिपात्रता का उपदेश दिया है, अतः इनसे भिन्न मार्ग मोक्षमार्ग नहीं है । जो संयमी आरम्भ-परिग्रह से विरक्त और बाईस परीषहों को सहन करनेवाले हों वे वन्दनीय हैं; जबकि जो लिंगी दर्शन और ज्ञान के योग्य धारक हों परन्तु वस्त्र धारण करते हों वे 'इच्छाकार' के योग्य हैं। सचेलक को, फिर भले ही वह तीर्थकर ही हों, मुक्ति नहीं मिलती। स्त्री के नाभि इत्यादि स्थानों में सूक्ष्म जीव होते हैं, अतः वह दीक्षा नहीं ले सकती । जिन्होंने इच्छा के ऊपर काबू प्राप्त किया है वे सब दुःखों से मुक्त होते हैं । इस कथन से यह जाना जा सकता है कि इस पाहुड में अचेलकता एवं स्त्रो को दीक्षा की अयोग्यता के ऊपर भार दिया गया है। टीका-इसकी टीका के रचयिता श्रुतसागर हैं। ४. बोधपाहुड (बोधप्राभूत )-इसमें ६२ गाथाएँ हैं। इसका प्रारम्भ आचार्यों के नमस्कार से होता है। इसकी तीसरी और चौथी गाथा में इसमें आनेवाले ग्यारह अधिकारों का निर्देश है । इनके नाम इस प्रकार हैं : १. आयतन, २. चैत्यगृह, ३. जिनप्रतिमा, ४. दर्शन, ५. जिनबिम्ब, ६. जिनमुद्रा, ७. ज्ञान, ८. देव, ९. तीर्थ, १०. तीर्थंकर और ११. प्रव्रज्या । २३ वीं गाथा में कहा है कि जिसके पास मतिज्ञानरूपी स्थिर धनुष है, श्रुतज्ञानरूपी प्रत्यंचा है और रत्नत्रयरूपी बाण हैं तथा जिसका लक्ष्य परमार्थ के विषय में बद्ध है वह मोक्षमार्ग से स्खलित नहीं होता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002097
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, Agam, Karma, Achar, & Philosophy
File Size14 MB
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