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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास __ कायोत्सर्ग की विधि का विधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि गुरु के समीप ही कायोत्सर्ग प्रारम्भ करना चाहिए तथा गुरु के समीप ही समाप्त करना चाहिए। कायोत्सर्ग के समय दाहिने हाथ में मुखवस्त्रिका और बाएं हाथ में रजोहरण रखना चाहिए।' कायोत्सर्ग के निम्नांकित दोष हैं : १. धोटकदोष, २. लतादोष, ३. स्तम्भ, कुड्यदोष, ४. मालदोष, ५. शबरीदोष, ६. वधूदोष, ७. निगडदोष, ८. लम्बो-- त्तरदोष, ९. स्तनदोष, १०. उद्धिदोष, ११. संयतीदोष, १२. खलिनदोष, १३. वायसदोष, १४. कपित्थदोष, १५. शीर्षकम्पदोष, १६. मूकदोष, १७. अंगुलिभ्रदोष, १८. वारुणीदोष. १९. प्रेक्षादोष । अब आचार्य अधिकारी का स्वरूप बताते हैं। जो वासी और चन्दन दोनों को समान समझता है, जिसकी जीने और मरने में समबुद्धि है, जो देह की ममता से परे है वही कायोत्सर्ग का सच्चा अधिकारी है ।3। कायोत्सर्ग के अन्तिम द्वार-फलद्वार की चर्चा करते हुए नियुक्तिकार कहते है कि सुभद्रा, राजा उदितोदित, श्रेष्ठिभार्या मित्रवती, सोदास, खड्गस्तम्भन आदि उदाहरणों से कायोत्सर्ग के ऐहलौकिक फल का अनुमान लगा लेना चाहिए । पारलौकिक फल के रूप में सिद्धि, स्वर्ग आदि समझने चाहिए । यहाँ कायोत्सर्ग नामक पंचम अध्ययन के ग्यारह द्वारों की चर्चा समाप्त होती है । प्रत्याख्यान : आवश्यक सूत्र का षष्ठ अध्ययन प्रत्याख्यान के रूप में है। नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु प्रत्याख्यान का छ : दृष्टियों से व्याख्यान करते हैं : १. प्रत्याख्यान, २. प्रत्याख्याता, ३. प्रत्याख्येय, ४ पर्षद, ५. कथनविधि और ६. फल ।" प्रत्याख्यान के छः भेद हैं : १. नामप्रत्याख्यान, २. स्थापनाप्रत्याख्यान, ३. द्रव्यप्रत्याख्यान, ४. अदित्साप्रत्याख्यान, ५. प्रतिषेधप्रत्याख्यान और ६. भावप्रत्याख्यान ।६ प्रत्याख्यान की शुद्धि छः प्रकार से होती है : १. श्रद्धानशुद्धि, २. जाननाशुद्धि, ३. विनयशुद्धि, ४. अनुभाषणाशुद्धि, ५. अनुपालनाशुद्धि, ६. भावशुद्धि । अशन, पान, खादिम और स्वादिम-ये चार प्रकार की आहारविधियाँ हैं। इन चार प्रकार के आहारों को छोड़ना आहार-प्रत्याख्यान है। जो शीघ्र ही क्षुधा को शान्त करता है वह अशन है। जो प्राण अर्थात् इन्द्रियादि का उपकार करता है वह पान है । जो आकाश में समाता है अर्थात उदर के रिक्त स्थान में भरा जाता है वह खादिम है । जो सरस आहार के गुणों को स्वाद प्रदान १. गा. १५३९-१५५०. २. गा. १५४१-२. ३. गा. १५४३. ४. गा. १५४५. ५. गा. १५५०. ६. गा. १५५१. ७. गा. १५८०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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