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________________ ६८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहासः ज्ञान और चारित्र के पारस्परिक सम्बन्ध की चर्चा करते हुए आचार्य ने यही सिद्ध किया है कि मुक्ति के लिए ज्ञान और चारित्र दोनों अनिवार्य हैं। ज्ञान और चारित्र के संतुलित समन्वय से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है । चारित्रविहीन ज्ञान और ज्ञानविहीन चारित्र एक-दूसरे से बहुत दूर बैठे हुए अन्धे और लंगड़े के समान हैं जो एक दूसरे के अभाव में अपने अभीष्ट स्थान पर नहीं पहुँच सकते । इसके बाद आचार्य यह बताते हैं कि सामायिक का अधिकारी कौन हो सकता है ? इस बहाने वस्तुतः उन्होंने श्रुतज्ञान के अधिकारी का ही वर्णन किया है। वह क्रमशः किस प्रकार विकास करता है, उसके कर्मों का किस प्रकार क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम होता है, वह किस प्रकार केवलज्ञान प्राप्त करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति कैसे होती है आदि प्रश्नों का उपशम और क्षपकश्रेणी के विस्तृत वर्णन द्वारा समाधान किया है। आचार्य का अभिप्राय यही है कि सामायिकश्रुत का अधिकारी ही क्रमशः मोक्ष का अधिकारी बनता है ।। जब मोक्ष की प्राप्ति के लिए सामायिक-श्रुत का अधिकार आवश्यक है । तब तीर्थङ्कर बनने के लिए तो वह आवश्यक है ही क्योंकि तीर्थङ्कर का अन्तिम लक्ष्य भी मोक्ष ही है। जो सामायिक-श्रुत का अधिकारी होता है वही क्रमशः विकास करता हुआ किंसो समय तीर्थङ्कररूप से उत्पन्न होता है । प्रत्येक तीर्थङ्कर अपने समय में सर्वप्रथम श्रुत का उपदेश देता है और वही श्रुत आगे जाकर सूत्र का रूप धारण करता है । तीर्थङ्करोपदिष्ट श्रुत को जिन-प्रवचन भी कहते हैं । आचार्य भद्रबाहु ने प्रवचन के निम्न पर्याय दिये हैं : प्रवचन, श्रुत, धर्म, तीर्थ और मार्ग । सूत्र, तन्त्र, ग्रन्थ, पाठ और शास्त्र एकार्थक हैं। अनुयोग, नियोग, भाष्य, विभाषा और वार्तिक पर्यायवाची है ।३ आगे आचार्य ने अनुयोग और अननुयोग का निक्षेपविधि से वर्णन किया है । इसके बाद भाषा, विभाषा और वार्तिक का भेद स्पष्ट किया है। साथ ही व्याख्यानविधि का निरूपण करते हुए आचार्य और शिष्य को योग्यता का नाप-दण्ड बताया है। इसके बादः आचार्य अपने मुख्य विषय सामायिक का व्याख्यान प्रारम्भ करते हैं तथा व्याख्यान की विधिरूप निम्नलिखित बातों का निर्देश करते हैं : १. उद्देश अर्थात् विषय का सामान्य कथन, २. निर्देश अर्थात् विषय का विशेष कथन, ३. निर्गम अर्थात् व्याख्येय वस्तु का उद्भव, ४. क्षेत्र अर्थात् १. गा० ९४-१०३. २. गा० १०४-१२७. २. गा० १३०-१. ४. गा० १३२-४. ५. गा० १३५-९. ६. गा० १४०-१. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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