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________________ ४३८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास व्यवस्था करके अपन दोनों सब उपाधि छोड़कर पुनः नवसंयम धारण करेंगे । इस समय जल्दी न करो । गुरु के ये वचन सुनकर धर्मसिंह विचार करने लगे कि यदि गुरुजी आदर्श संयम धारण करें तो और भी अच्छा, क्योंकि ये मेरे ज्ञानोपकारी हैं अतः मुझे इन्हें साथ लेकर नवमार्ग ग्रहण करना चाहिए। ऐसा सोच कर धर्मसिंह ने धैर्यं रखा । इसी बीच उन्हे विचार आया कि मुझे अपने अवकाश का उपयोग विशेष ज्ञानवृद्धि में करना चाहिए । मुख का उपदेश तो थोड़े से मनुष्य ही सुन सकते हैं। और वह भी एक ही जगह, किन्तु लिखा हुआ उपदेश सर्वत्र एवं सर्वदा काम आ सकता है । यही सोचकर उन्होंने आगम ग्रंथों पर टबा ( टिप्पण ) लिखने का काम शुरू किया | धर्मसिंह ने कुल २७ सूत्रों के गुजराती टबे लिखे । ये इतने सरल एवं सुबोध हैं कि आज भी कई साधु इन्हीं के आधार पर शास्त्रों का अभ्यास करते हैं । गुजरात और राजस्थान में तो इनका उपयोग होता ही है, पंजाब के साधु भी इनका पूरा उपयोग करते हैं । ये अभी तक प्रकाशित नहीं हुए हैं । दिन पर दिन बीतने लगे । धर्मसिंह को गुरु में शुद्ध चारित्र पालन के कोई लक्षण दृष्टिगोचर न हुए । धर्मसिंह का धैर्य अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच चुका था । उन्होंने गुरु से कहा कि इतने दिन तक धैर्य रखने के बाद भी यदि आप विशुद्ध चारित्रमार्ग पर चलने के लिए तैयार नहीं हैं तो मुझे ही आज्ञा दीजिए मैं अकेला ही उस पथ का पथिक बनने के लिए तैयार । यह सुनकर गुरु ने गद्गद हृदय से शिष्य को आत्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर होने की अनुमति प्रदान करते हुए कहा कि हे धर्मप्रिय ! मैं तुम्हें आत्मकल्याण के लिए अन्तःकरण से आशीर्वाद देता । तुम जिस मार्ग पर चलने जा रहे हो वह बहुत ही कठिन एवं कँटीला है । यदि तुम इस पथ पर सफलता पूर्वक बढ़ सकोगे तब तो ठीक अन्यथा तुम्हारे साथ मुझे भी अपयश का भागी बनना पड़ेगा । अतः नया मार्ग ग्रहण करने के पूर्व मैं तुम्हारी परीक्षा लेना चाहता हूँ । आज रात को तुम अहमदाबाद के उत्तर की ओर उद्यान में जो दरयाखान नामक यक्षायतन है उसमें रहो । प्रातःकाल मुझमे अन्तिम आज्ञा लेकर नया मार्ग ग्रहण करना । गुरु को वन्दन कर यति धर्मसिंह दरयाखान की ओर चले । शास्त्राज्ञा के अनुसार धर्मसिंह ने उस स्थान के रक्षक से वहाँ ठहरने की अनुमति माँगी । मुसलमान रक्षक ने उत्तर दिया : "यतिजी ! क्या आपको दरयाखान पीर की शक्ति का ज्ञान नहीं है ? क्या आपको मालूम नहीं कि इस स्थान पर रात में कोई मनुष्य नहीं रह सकता ? हमारे चमत्कारी पोर के इन्होंने सैकड़ों मनुष्यों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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