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________________ ४३४ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास टिप्पनकं पर्युषणाकल्पस्यालिखदवेक्ष्य शास्त्राणि । तच्चरणकमलमधुपः श्रीपृथ्वीचन्द्रसूरिरिदम् ॥५॥ इह यद्यपि न स्वधिया विहितं किञ्चित् तथापि बुधवगैः । संशोध्यमधिकमूनं यद् भणितं स्वपरबोधाय ॥ ६॥ पृथ्वीचन्द्रसूरि देवसेनगणि के शिष्य है। देवसेनगणि के गुरु का नाम यशोभद्रपरि है। यशोभद्रसूरि राजा शाकम्भरी को प्रतिबोध देनेवाले आचार्य धर्मघोषसूरि के शिष्य हैं । धर्मघोषसूरि के शिष्य चन्द्रकुलावतंस आचार्य शीलभद्रसूरि के नाम से प्रसिद्ध है। ___ उपर्युक्त टीकाओं के अतिरिक्त निम्नलिखित आगमिक वृत्तियां भी प्रकाशित हो चुकी हैं : आचारांग की जिनहंस व पावचन्द्रकृत वृत्तियाँ,' सूत्रकृतांग की हर्षकुलकृत दीपिका, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की शान्तिचन्द्रकृत टीका, कल्पसूत्र को धर्मसागर, लक्ष्मीवल्लभ एवं जिनभद्रकृत वृत्तियाँ,४ बृहत्कल्प की अज्ञात वृत्ति,५ उत्तराध्ययन को कमलसंयम व जयकीतिकृत टीकाएँ, आवश्यक (प्रतिक्रमण ) की नमिसाधुकृत वृत्ति । बीसवीं शतो में भी मुनि श्री घासीलालजी, श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि आदि १. रायबहादुर धनपतसिंह, कलकत्ता, वि. सं. १९३६. २. भीमसी माणेक, बम्बई, वि. सं. १९३६. ३. देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई, सन् १९२०. ४ ( अ ) धर्मसागरकृत किरणावली-जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, वि. सं. १९७८. (आ) लक्ष्मोवल्लभकृत कल्पद्रुमकलिका-जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, वि. सं. १९७५; वेलजी शिवजी, मांडवी, बम्बई, सन् १९१८. (इ) जिनप्रभकृत सन्देहविषौषधि--हीरालाल हंसराज, जामनगर, सन् १९१३. ५. सम्यक् ज्ञान प्रचारक मंडल, जोधपुर. ६. (अ) कमलसंयमकृत वृत्ति--यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, भावनगर, सन् १९२७. (आ) जयकोर्तिकृत गुजराता टोका--हीरालाल हंसराज, जामनगर, सन् १९०९. ७. विजयदानसूरीश्वर ग्रंथमाला, सूरत, सन् १९३९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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