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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
प्रशस्ति के कुछ श्लोक ये हैं :
तस्य स्फुरदुरुकीर्त्तेर्वाचकवरकीर्ति विजयपूज्यस्य । विनयविजयो विनेयः सुबोधिकां व्यरचयत् कल्पे ||१२|| समशोधयंस्तथैनां पण्डितसंविग्नसहृदयावतंसाः । श्रीविमलहर्षवाचकवंशे मुक्तामणिसमानाः ॥ १३॥ धिषणानिर्जितधिषणाः सर्वत्र प्रसूतकीर्तिकर्पूराः । श्रीभावविजयवाचककोटीराः शास्त्रवसुनिकषाः ॥ १४॥ रसनिधिरसशशिवर्षे ज्येष्ठे मासे समुज्ज्वले पक्षे । गुरुपुष्ये यत्नोऽयं सफलो जज्ञे द्वितीयायाम् ||१५|| श्री रामविजय पण्डित शिष्यश्रीविजयविबुधमुख्यानाम् । अभ्यर्थनापि हेतुविज्ञेयोऽस्याः कृतौ विवृतेः ॥१६॥ टीका का ग्रंथमान ५४०० श्लोकप्रमाण है :
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प्रत्यक्षरं गणनया, ग्रन्थमानं शताः स्मृताः । चतुष्पञ्चाशदेतस्यां वृत्तौ सूत्रसमन्वितम् ॥
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कल्पसूत्र-कल्पलता :
प्रस्तुत व्याख्या खरतरगच्छीय जिनेन्द्रसूरि के शिष्य सकलचन्द्रगणि के शिष्य समय सुन्दरगणि-विरचित है। इसका रचना-काल खरतरगच्छीय जिनराजसूरि का शासन - समय है । इनकी मृत्यु वि. सं. १६९९ में हुई थी । अतः इस व्याख्या का रचना - काल वि. सं० १६९९ के आसपास है । इसका संशोधन नन्दन ने किया है । प्रारम्भ में व्याख्याकार ने पंचपरमेष्ठी, दीक्षागुरु तथा ज्ञानगुरु को नमस्कार किया है और खरतरगच्छ की मान्यताओं को दृष्टि में रखते हुए कल्पसूत्र (पर्युषणाकल्प ) का व्याख्यान करने का अन्त की प्रशस्ति में वृत्तिकार की गुरु परम्परा की नामावली के साथ प्रस्तुत वृत्ति के संशोधक, वृत्ति प्रारंभ एवं पूर्ण करने के स्थान, धर्म- शासक एवं धर्मयुवराज का नामोल्लेख किया गया है । वृत्ति का ग्रंथमान ७७०० श्लोकप्रमाण है । कल्पसूत्र - कल्पकौमुदी :
संकल्प किया है ।
यह वृत्ति तपागच्छीय धर्मसागरगणि के प्रशिष्य एवं श्रुतसागरगणि के
१. जामनगर - संस्करण, पृ० १९५.
२. कालिकाचार्यकथासहित - जिनदत्तसूरि प्राचीनपुस्तकोद्धार, सूरत, सन् १९३९, ३. Introduction ( H. D. Velankar ), पृ० १०.
४. ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, सन् १९३६.
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