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________________ त्रयोदश प्रकरण श्रीचंद्रसरिविहित व्याख्याएँ श्रीचन्द्रसरि का दूसरा नाम पार्श्वदेवगणि है। ये शीलभद्रसूरि के शिष्य हैं। इन्होंने वि० सं० ११७४ में निशीथसूत्र की विशेषचूणि के बीसवें उद्देशक की व्याख्या की है । इसके अतिरिक्त निम्न ग्रंथों पर भी इनकी टीकाएं हैं : श्रमणोपासक-प्रतिक्रमण (आवश्यक), नन्दी (नन्दीदुर्गपदव्याख्या), जीतकल्प-बृहच्चूर्णि, निरयावलिकादि अन्तिम पांच उपांग । निशीथचूणि दुर्गपदव्याख्या : निशीथणि के बीसवें उद्देश पर श्रीचन्द्रसूरि ने दुर्गपदव्याख्या' नामक टीका लिखी है। चूणि के कठिन अंशों को सरल एवं सुबोध बनाने के लिए ही प्रस्तुत व्याख्या लिखी गयी है । जैसा कि व्याख्याकार प्रारम्भ में ही लिखते है : विशोदेशे श्रीनिशीथस्य चूर्णी, दुर्ग वाक्यं यत् पदं वा समस्ति । स्वस्मृत्यर्थं तस्य वक्ष्ये सुबोधां, व्याख्यां कांचित् सद्गुरुभ्योऽवबुद्धाम् ।। २।। इस व्याख्या का अधिक अंश विविध प्रकार के मासों के भंग, दिनों की गिनती आदि से सम्बन्धित होने के कारण नीरस है। चूर्णिकार जिनदासगणि महत्तर के नाम से सम्बन्धित अन्तिम दो गाथाओं की व्याख्या करते हुए व्याख्याकार कहते हैं: .."वर्गा इह अ । क । च । ट । त।प। य । श । वर्गा इति वचनात् स्वरादयो हकारान्ता ग्राह्याः। तदिह प्रथमगाथया जिणदास इत्येवंरूपं नामाभिहितं, द्वितीयगाथया तदेव विशेषयितुमाह-जिणदास महत्तर इति तेन रचिता चूर्णिरियम् ।२ अन्त में व्याख्याकार अपना परिचय देते हुए कहते हैं : श्रीशालि(शील)भद्रसूरीणां, शिष्यैः श्रीचन्द्रसूरिभिः । विंशकोद्देशके व्याख्या, दृब्धा स्वपरहेतवे ॥ १ ॥ १. सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, सन् १९६० ( निशीथसूत्र के चतुर्थ विभाग के अन्तर्गत, पृ० ४१३-४४३). २. पृ० ४४३. २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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