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________________ मलयगिरिविहित वृत्तियां ४०३ __इसके बाद आचार्य ने इस उपांग का नाम 'राजप्रश्नीय क्यों रखा गया, इस पर प्रकाश डाला है । वे लिखते हैं : _ 'अथ कस्माद् इदमुपाङ्गं राजप्रश्नीयाभिधानमिति ? उच्यते-इह प्रदेशिनामा राजा भगवतः केशिकुमारश्रमणस्य समीपे यान् जीवविषयान् प्रश्नानकार्षित् यानि च तस्मै केशिकुमारश्रमणो गणभृत् व्याकरणानि व्याकृतवान्, यच्च व्याकरणसम्यक्परिण तिभावतो बोधिमासाद्य मरणान्ते शुभानुशययोगतः प्रथमे सौधर्मनाम्नि नाकलोके विमानमाधिपत्येनाध्यतिष्ठत्, यथा च विमानाधिपत्यप्राप्त्यनन्तरं सम्यगवधिज्ञानाभोगतः श्रीमद्वर्धमानस्वामिनं भगवन्तमालोक्य भक्त्यतिशयपरीतचेताः सर्वस्वसामग्रीसमेत इहावतीर्य भगवतः पुरतो द्वात्रिंशद्विधिनाट्यमनरीनृत्यत्, नर्तित्वा च यथाऽऽयुष्कं दिवि सुखमनुभूय ततश्च्युत्वा यत्र समागत्य मुक्तिपदमवाप्स्यति, तदेतत्सर्वमस्मिन् उपाङ्गऽभिधेयम् । परं सकलवक्तव्यतामूलम्-'राजप्रश्नीय' इति-राजप्रश्नेषु भवं राजप्रश्नीयम् ।' । प्रदेशी नामक राजा ने केशिकुमार नामक श्रमण से जीवविषयक अनेक प्रश्न पूछे । प्रदेशी का केशिकुमार के उत्तर से समाधान हुआ और वह अपने शुभ अध्यवसायों के कारण मरने के बाद सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में विमानाधिपति के रूप में उत्पन्न हुआ। वहां से सम्यक् अवधिज्ञान से भगवान् वर्धमान को देखकर भक्ति के अतिशय के कारण सर्व सामग्री से सज्जित हो भगवान् के पास आया और बत्तीस प्रकार के नाटक खेले। अपने देवलोक के सुख को भोगकर वहां से च्युत होकर वह कहां जाएगा व किस प्रकार मुक्ति प्राप्त करेगा, आदि बातों का वर्णन प्रस्तुत उपांग में है। इस सारे वक्तव्य का तात्पर्य यह है कि यह ग्रन्थ राजा के प्रश्नों से सम्बन्धित है अतः इसका नाम 'राजप्रश्नीय' है। प्रस्तुत वक्तव्य में आचार्य ने ग्रन्थ के शब्दार्थ के साथ ही साथ ग्रन्थ के विषय पर भी प्रकाश डाला है। इसके बाद विवरणकार ने दूसरा प्रश्न किया है। यह किस अंग का उपांग है ? यह सूत्रकृतांग का उपांग है । यह सूत्रकृतांग का उपांग क्यों है, इस पर भी आचार्य ने हेतु पुरस्सर प्रकाश डाला है : अथ कस्याङ्गस्य इदमुपाङ्गम् ? उच्यतेसूत्रकृताङ्गस्य, कथं तदुपाङ्गतेति चेत्, उच्यते सूत्रकृते ह्यङ्ग..." ।' । प्रथम सूत्रान्तर्गत आमलकल्पा-आमलकप्पा नामक नगरी का वर्णन करते हुए आचार्य ने लिखा है कि वह नगरी इस समय ( मलयगिरि के काल में ) भी १. अहमदाबाद संस्करण, पृ. २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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