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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जिसमें निशीथ की भूमिका के रूप में तत् सम्बद्ध आवश्यक विषयों का व्याख्यान किया गया है । प्रारंभिक मंगल-गाथाओं में आचार्य ने अपने विद्यागुरु प्रद्युम्न क्षमाश्रमण को भी नमस्कार किया है । इसी प्रसंग पर उन्होंने यह भी बताया है कि निशीथ का दूसरा नाम प्रकल्प भी है । निशीथ का अर्थ है अप्रकाश अर्थात् अंधकार । अप्रकाशित वचनों के निर्णय के लिए निशीथसूत्र है । प्रथम उद्देश की चूर्णि में हस्तकर्म का विश्लेषण करते हुए आचार्य ने बताया है कि हस्तकम दो प्रकार का है : असंक्लिष्ट और संक्लिष्ट । असंक्लिष्ट हस्तकर्म आठ प्रकार का है : छेदन, भेदन, घर्षण, पेषण, अभिघात, स्नेह, काय और क्षार । संक्लिष्ट हस्तकर्म दो प्रकार का है : सनिमित्त और अनिमित्त । सनिमित्त हस्तकर्म तीन प्रकार के कारणों से होता है : शब्द सुनकर, रूप देखकर अथवा पूर्व अनुभूत विषय का स्मरण कर । अंगोपांग का विवेचन करते हुए चूर्णिकार ने बताया है कि शरीर के तीन भाग हैं : अङ्ग, उपाङ्ग और अङ्गोपाङ्क । अङ्ग आठ हैं : सिर, उर, उदर, पीठ, दो बाहु और दो ऊरु । कान, नाक, आँखें, जंघाएँ, हाथ और पैर उपांग हैं । नख, बाल, श्मश्रु , अंगुलियाँ, हस्ततल और हस्तोपतल अङ्गोपाङ्ग हैं । दंड, विदंड, लाठी एवं विलट्टी का भेद आचार्य ने इस प्रकार किया है : दंड तीन हाथ का होता है, विदंड दो हाथ का होता है, लाठी आत्मप्रमाण होती है, विलट्टी लाठी से चार अंगुल न्यून होती है। इसी प्रकार द्वितीय उद्देश की व्याख्या में शय्या और संस्तारक का भेद बताते हुए कहा गया है कि शय्या सर्वांगिका अर्थात् पूरे शरीर के बराबर होती है जबकि संस्तारक ढाई हाथ लम्बा ही होता हैं। उपधि का विवेचन करते हुए आचार्य ने बताया है कि उपधि दो प्रकार की होती है : अवधियुक्त और उपगृहीत । जिनकल्पिकों के लिए बारह प्रकार की, स्थविरकल्पिकों के लिए चौदह प्रकार की एवं आर्याओंसाध्वियों के लिए पच्चीस प्रकार की उपधि अवधियुक्त है। जिनकल्पिक दो प्रकार के हैं : पाणिपात्रभोजी और प्रतिग्रहधारी। इनके पुनः दो-दो भेद हैं : सप्रावरण--सवस्त्र और अप्रावरण--निर्वस्त्र । जिनकल्प में उपधि की आठ कोटियाँ हैं : दो, तीन, चार, पाँच, नव, दस, ग्यारह और बारह (प्रकार की उपधि)। निर्वस्त्र पाणिपात्र की जघन्य उपधि दो प्रकार की है। रजोहरण और मुखवस्त्रिका । वही पाणिपात्र यदि सवस्त्र है तो उसकी जघन्य उपधि तीन प्रकार की होगी। रजोहरण, मुखवस्त्रिका और एक वस्त्र। इस प्रकार उपधि की संख्या क्रमशः बढ़ती जाती है । षष्ठ उद्देश की व्याख्या में साधुओं के मैथुनसम्बन्धी दोषों एवं प्रायश्चित्तों का वर्णन करते हुए चूणिकार ने मातृग्राम और मैथुन का शब्दार्थ इस प्रकार किया है : माता के समान नारियों के वृंद को मातृग्राम कहते है। अथवा सामान्य स्त्री-वर्ग को मातृग्राम-माउग्गाम कहना चाहिए, जैसे कि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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