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________________ ४०. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कल्प (बृहत्कल्प ) सूत्र और व्यवहार सूत्र का अन्तर स्पष्ट करते हुए प्रारम्भ में ही आचार्य कहते हैं कि कल्पाध्ययन में प्रायश्चित का कथन तो किया गया है किन्तु प्रायश्चित्तदान की विधि नहीं बताई गई है । व्यवहार में प्रायश्चित्तदान और आलोचनाविधि का अभिधान है। इस प्रकार के व्यवहाराध्ययन की यहाँ व्याख्या की जायेगी :.""कल्पाध्ययने आभवत्प्रायश्चित्तमुक्तं, व्यवहारे तु दानप्रायश्चित्तमामालोचनाविधिश्चाभिधास्यते । तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्यवहाराध्ययनस्य विवरणं प्रस्तूयते ।' 'व्यवहार' शब्द का विशेष विवेचन करने के लिए भाष्यकार-निर्दिष्ट व्यवहार, व्यवहारी और व्यवहतंव्य-इन तीनों के स्वरूप पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है । व्यवहारो कर्तारूप है, व्यवहार करण रूप है और व्यवहर्तव्य कार्यरूप है। करणरूप व्यवहार पांच प्रकार का है : आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत ।२ चूर्णिकार ने भी इस पांच प्रकार के व्यवहार को करण कहा है : आह चर्णिकृत-पंचविधो व्यवहारः करणमिति"। सूत्र, अर्थ, जीत, कल्प, मार्ग, न्याय, इप्सितव्य, आचरित और व्यवहार एकार्थक हैं। व्यवहार का उपयोग गीतार्थ के लिए है, अगीतार्थ के लिए नहीं। जो स्वयं व्यवहार को जानता है अथवा समझाने से समझ जाता है वह गीतार्थ है । इसके विपरीत अगीतार्थ है। वह न तो स्वयं व्यवहार से परिचित होता है और न समझाने से ही समझता है। इस प्रकार के व्यक्ति के लिए व्यवहार का कोई उपयोग नहीं है। व्यवहारोक्त प्रायश्चित्तदान के लिए यह आवश्यक है कि प्रायश्चित्त देनेवाला और प्रायश्चित्त लेने वाला दोनों गीतार्थ हों। अगीतार्थ न तो प्रायश्चित्त देने का अधिकारी है और न लेने का । प्रायश्चित्त क्या है, इस प्रश्न को लेकर आचार्य ने प्रायश्चित्त का अर्थ बताते हुए उसके प्रतिसेवना, संयोजना, आरोपणा और परिकुञ्चना-इन चार भेदों का सविस्तार व्याख्यान किया है। प्रतिसेवनारूप प्रायश्चित्त दस प्रकार का है : १. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. मिश्र, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. मूल, ९. अनवस्थित, १०. पारांचित । - १. प्रथम विभाग, पृ० १. २. इनका विशेष वर्णन जीतकल्पभाष्य में देखिए । ३. पृ० ३. ४. पृ० ५ ( भाष्य, गा० ७). ५. पृ० १३ ( भाष्य, गा० २७ ). ६. पृ० १५. ७. पृ० १९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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