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________________ ३९८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास हैं।' नारकों की शीतोष्णवेदना का विवेचन करते हुए टीकाकार ने शरदादि ऋतुओं का स्वरूप बताया है । ऋतुएँ छः है : प्रावट, वर्षारात्र, शरत्, हेमन्त, वसन्त और ग्रीष्म । इस क्रम के समर्थन के लिए पादलिप्तसरि की एक गाथा उद्धृत की गयी है : पाउस वासारत्तो, सरओ हेमंत वसंत गिम्हो य । एए खलु छप्पि रिऊ, जिणवरदिट्ठा मए सिट्ठा ।। प्रथम शरत्कालसमय कार्तिकसमय है, इसका समर्थन करते हुए ( जीवाभिगम के ) मूलटीकाकार के 'प्रथमशरत् कार्तिकमासः' ये शब्द उद्धृत किये हैं । आगे वसुदेवचरित ( वसुदेवहिण्डी ) का भी उल्लेख है । प्रस्तुत विवरण में जीवाभिगम को मूलटीका की ही भांति उसकी चूर्णि का भी उल्लेख किया गया है एवं उसके उद्धरण दिये गये हैं। ज्योतिष्क देवों के विमानों का वर्णन करने वाले सूत्र ( १२२ ) 'कहि णं भंते ! जोइसियाणां देवाणं विमाणा पण्णत्ता' का व्याख्यान करते हुए टीकाकार ने एतद्विषयक विशेष चर्चा के लिए ( मलयगिरिकृत ) चन्द्रप्रज्ञप्तिटीका, सूर्य प्रज्ञप्तिटीका तथा संग्रहणिटीका के नाम सूचित किये हैं : अत्राक्षेपपरिहारौ चन्द्रप्रज्ञप्तिटीकायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां संग्रहणिटीकायां चाभिहिताविति ततोऽवधार्यो ।' आगे देशीनाममाला का भी उल्लेख है।६ एकादश अलंकारों के वर्णन के लिए भरतविशाखिल का उल्लेख किया गया है जो व्यवच्छिन्न पूर्वो का एक अत्यन्त अल्प अंश है : तानि च पूर्वाणि सम्प्रति व्यवच्छिन्नानि ततः पूर्वेभ्यो लेशतो विनिर्गतानि यानि भरतविशाखिलप्रभृतीनि तेभ्यो वेदितव्याः"। 'विजयस्स णं दारस्स' ( सू० १३१ ) का विवेचन करते हुए टीकाकार ने 'उक्तं च जीवाभिगममूलटीकायां' ऐसा कह कर 'तैलसमुद्गको सुगन्धितैलाधारौ' ये शब्द जीवाभिगममूलटीका से उद्धृत किये हैं। आगे राजप्रश्नीयोपांग में वर्णित बत्तीस प्रकार की नाट्य विधि का सुन्दर शब्दावली में वर्णन किया है। 'लवणे णं भंते' ( स० १५५ ) को व्याख्या करते हुए आचार्य ने सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ति की एक गाथा उद्धृत की है : जोइसियविमाणाई सव्वाइं हवंति फलिहमइयाई । दगफालियामया पूण लवणे जे जोइसविमाणा॥ १. पृ० ११९ ( १). २. पृ० १२२ ( १ ). ३. पृ०१३० (१). ४. पृ० १३६ (२), २०८ (२). ५. पृ० १७४ (१). ६. पृ० १८८ (१). ७. पृ० १९४ (१). ८. पृ० २४६. ९. पृ० ३०३ (२). Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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