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________________ ३७२ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास एकादशसु शतेष्वथ विंशत्यधिकेषु विक्रमसमानाम् । अणहिलपाटकनगरे रचिता समवायटोकेयम् ॥ ८॥ प्रत्यक्षरं निरूप्यास्याः ग्रन्थमानं विनिश्चितम् । त्रीणि श्लोकसहस्राणि, पादन्यूना च षट्शती ।। ९ ।। व्याख्याप्रज्ञप्तिवृत्तिः प्रस्तुत वृत्ति' व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती ) के मूल सूत्रों पर है । यह संक्षिप्त एवं शब्दार्थप्रधान है। इसमें यत्र-तत्र अनेक उद्धरण अवश्य हैं जिनसे अर्थ समझने में विशेष सहायता मिलती है। उद्धरणों के अतिरिक्त आचार्य ने अनेक पाठान्तर और व्याख्याभेद भी दिये हैं जो विशेष महत्त्व के हैं। सर्वप्रथम आचार्य सामान्यरूप से जिन को नमस्कार करते हैं। तदनन्तर वर्धमान, सुधर्मा, अनुयोगवृद्धजन तथा सर्वज्ञप्रवचन को प्रणाम करते हैं। इसके बाद इसी सूत्र की प्राचीन टीका और चूणि तथा जीवाभिगमादि की वृत्तियों की सहायता से पंचम अंग व्याख्याप्रज्ञप्ति का विवेचन करने का संकल्प करते हैं। एतदर्थभित श्लोक ये हैं : सर्वज्ञमीश्वरमनन्तमसङ्गमयं, सर्वीयमस्मरमनीशमनीहमिद्धम् । सिद्धं शिवं शिवकरं करणव्यपेतं, श्रीमज्जिनं जितरिपुं प्रयतःप्रणौमि ।।१॥ नत्वा श्रीवर्धमानाय, श्रीमते च सुधम॑णे । सर्वानुयोगवृद्ध भ्यो, वाण्यै सर्वविदस्तथा ॥ २ ॥ एतट्टीका-चूर्णी-जीवाभिगमादिवृत्तिलेशांश्च । संयोज्य पञ्चमाझं विवृणोमि विशेषतः किञ्चित् ।। ३ ।। व्याख्याप्रज्ञप्ति का शब्दार्थ बताते हुए वृत्तिकार कहते हैं : 'अथ 'विआहपन्नत्ति' त्ति कः शब्दार्थः? उच्यते विविधा जीवा जीवादिप्रचुरतरपदार्थविषयाः आ-अभिविधिना कथञ्चिन्निखिलज्ञेयव्या १. (अ) पूजाभाई हीराचन्द, रायचन्द जिनागम संग्रह, अहमदाबाद. (आ) रायबहादुर धनपतसिंह, बनारस, सन् १८८२. (इ) एम० आर० मेहता, बम्बई, वि० सं० १९१४. (ई) आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९१८-२१. (उ) ऋषभदेवजी केशरीमलजी जैन श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, (प्रथम भाग-श० १-७) सन् १९३७, (द्वितीय भाग-श०८-१४) १९४०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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