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शांतिसूरिकृत उत्तराध्ययनटीका
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शान्तिसूरि के बत्तीस शिष्य थे। वे उन सब को प्रमाणशास्त्र का अभ्यास कराते थे । उस समय नाडोल से बिहार कर आये हुए मुनिचन्द्रसूरि पाटन की चैत्यपरिपाटी यात्रा में घूमते हुए वहाँ पहुँचे और खड़े-खड़े ही पाठ सुनकर चले गये । इस प्रकार वे पन्द्रह दिन तक इसी प्रकार पाठ सुनते रहे । सोलहवें दिन सब शिष्यों की परीक्षा के साथ उनकी भी परीक्षा ली गयी। मुनिचन्द्र का बुद्धिचमत्कार देखकर शान्तिसूरि अति प्रसन्न हुए तथा उन्हें अपने पास रखकर प्रमाणशास्त्र का विशेष अभ्यास कराया।
शान्तिसूरि अपने अन्तिम दिनों में गिरनार में रहे। वहाँ उन्होंने २५ दिन तक अनशन-संथारा किया जो वि० सं० १०९६ के ज्येष्ठ शुक्ला ९ मगलवार को पूर्ण हुआ और वे स्वर्गवासी हुए। ___शान्तिसूरि के समय के विषय में इतना कहा जा सकता है कि पाटन में भीमदेव का शासन वि० सं० १०७८ से ११२० तक था तथा शान्तिसूरि ने भीमदेव की सभा में 'कवीन्द्र' और 'वादिचक्रवर्ती' की पदवियाँ प्राप्त की थीं। राजा भोज जिसको सभा में शान्तिसूरि ने ८४ वादियों को पराजित किया था, वि० सं० १०६७ से ११११ तक शासक के रूप में विद्यमान था। कवि धनपाल ने वि० स० १०२९ में अपनी बहिन के लिए 'पाइयलच्छीनाममाला' की रचना की थी । शान्तिसूरि और धनपाल लगभग समवयस्क थे। इन तीनों प्रमाणों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि शान्तिसूरि का समय विक्रम की ग्यारहवीं शती है।
शान्तिसूरि ने उत्तराध्ययन-टीका के अतिरिक्त धनपाल की "तिलकमंजरी' पर भी एक टिप्पण लिखा है जो पाटन के भण्डारों में आज भी विद्यमान है। जीवविचारप्रकरण और चैत्यवन्दन-महाभाष्य भी इन्हीं के माने जाते हैं ।
वादिवेताल शान्तिसूरिकृत प्रस्तुत टीका' का नाम शिष्यहितावृत्ति है । यह पाइअ-टीका के नाम से भी प्रसिद्ध है क्योंकि इसमें प्राकृत कथानकों एवं उद्धरणों की बहुलता है। टीका भाषा, शैली, सामग्री आदि सभी दृष्टियों से सफल है। इसमें मूल सूत्र एवं नियुक्ति दोनों का व्याख्यान है। बीच में कहींकहीं भाष्यगाथाएँ भी उद्धृत की गई है अनेक स्थानों पर पाठान्तर भी दिये गये हैं । प्रारम्भ में निम्नलिखित मंगलश्लोक हैं :
शिवदाः सन्तु तीर्थेशा, विधनसंघातघातिनः । भवकूपोद्धृतौ येषां वाग् वरत्रायते नृणाम् ॥ १॥
१. देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई, सन् १९१६-७ ।
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