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________________ प्रास्ताविक २५ होता है ? क्षिप्तचित्त होने के तीन कारण हैं : राग, भय और अपमान । दीप्तचित्त क्षिप्तचित्त से ठीक विरोधी स्वभाव का होता है । क्षिप्तचित्त होने का मुख्य कारण अपमान है जबकि दीप्तचित्त होने का मुख्य कारण सम्मान है। विशिष्ट सम्मान के बाद मद के कारण, लाभमद से मत्त होने पर अथवा दुर्जय शत्रुओं को जीतने के मद से उन्मत्त होने के कारण व्यक्ति दोप्तचित्त हो जाता है। क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त में एक अन्तर यह है कि क्षिप्तचित्त प्रायः मौन रहता है जबकि दीप्तचित्त अनावश्यक बक-बक किया करता है। तृतीय उद्देश के भाष्य में इच्छा, गण आदि शब्दों का निक्षेपपूर्वक व्याख्यान किया गया है एवं गणावच्छेदक, आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, प्रवर्तिनी आदि पदवियाँ धारण करनेवालों की योग्यताओं का विचार किया गया है । जो एकादशांग-सूत्रार्थधारी है, नवम पूर्व के ज्ञाता हैं, कृतयोगी हैं, बहुश्रु त है, बह्वागम हैं, सूत्रार्थविशारद है, धोर हैं, श्रु तनिघर्ष हैं, महाजन हैं वे ही आचार्य आदि पदवियों के योग्य हैं । चतुर्थ उद्देश की व्याख्या में साधुओं के विहार से सम्बन्धित विधि-विधान है । शीत और उष्णकाल के आठ महीनों में आचार्य तथा उपाध्याय को एक भी अन्य साधु साथ में न होने पर विहार नहीं करना चाहिए । गणावच्छेदक को साथ में कम से कम दो साधु होने पर ही विहार करना चाहिए । आचार्य तथा उपाध्याय को कमसे-कम अन्य दो साधु साथ में होने पर हो अलग चातुर्मास करना (वर्षाऋतु में एक स्थान पर रहना) चाहिए । गणावच्छेदक के लिए चातुर्मास में कम-से-कम तीन अन्य साधुओं का सहवास अनिवार्य है । प्रस्तुत उद्देश की व्याख्या में निम्नोक्त विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है : जातसमाप्तकल्प, जातअसमाप्तकल्प, अजातसमाप्तकल्प, अजातअसमाप्तकल्प, वर्षाकाल के लिए उपयुक्त स्थान, त्रैवार्षिकस्थापना, गणधरस्थापना, ग्लान की सेवा-शुश्रूषा, अवग्रह का विभाग, आहारादिविषयक अनुकम्पा इत्यादि । पंचम उद्देश की व्याख्या में साध्वियों के विहारसम्बन्धी 'नियमों पर प्रकाश डाला गया है । षष्ठ उद्देश के भाष्य में साधु-साध्वियों के सम्बन्धियों के यहाँ से आहारादि ग्रहण करने के नियमों का निरूपण किया गया है । सप्तम उद्देश के भाष्य में अन्य समुदाय से आनेवाले साधु-साध्वियों को अपने समुदाय में लेने के नियमों पर प्रकाश डाला गया है। जो साधु-साध्वियाँ सांभोगिक हैं अर्थात् एक ही आचार्य के संरक्षण में रहते हैं उन्हें अपने आचार्य की अनुमति प्राप्त किये बिना अन्य समुदाय से आने वाले साधु-साध्वियों को अपने -संघ में सम्मिलित नहीं करना चाहिए। यदि किसी स्त्री को एक संघ में दीक्षा लेकर दूसरे संघ की साध्वी बनना हो तो उसे दीक्षा नहीं देनी चाहिए । उसे जिस संघ में रहना हो उसी संघ में दीक्षा ग्रहण करना चाहिए । पुरुष के लिए ऐसा नियम नहीं है । वह कारणवशात् एक संघ में दीक्षा लेकर दूसरे संघ के आचार्य को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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