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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास हुए ऐसा प्रतीत होता है कि दशाश्रुतस्कन्धचूणि बृहत्कल्पचूर्णि से पूर्व लिखी गई है और सम्भवतः दोनों एक ही आचार्य की कृतियाँ हैं ।
प्रस्तुत चूणि में भी भाष्य के ही अनुसार पीठिका तथा छः उद्देश हैं। पीठिका के प्रारम्भ में ज्ञान के स्वरूप की चर्चा करते हुए चर्णिकार ने तत्वार्थाधिगम का एक सूत्र उद्धृत किया है । अवधिज्ञान के जघन्य और उत्कृष्ट विषय की चर्चा करते हुए चूर्णिकार कहते हैं :
जावतिए ति जहण्णेणं तिसमयाहारगसुहमपणगजीवावगाहणामेत्ते उक्कोसेणं सव्वबहुअगणिजीवपरिच्छित्ते पासइ दव्वादि आदिग्गहणेणं वण्णादि तमिति खेत्तं ण पेच्छति यस्मादुक्तम्- "रूपिष्व वधेः' (तत्त्वार्थ १-२८) तच्चारूपि खेत्तं अतो ण पेच्छति ।'
अभिधान अर्थात् वचन और अभिधेय अर्थात् वस्तु इन दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध की चर्चा करते हुए चूर्णिकार ने भाष्याभिमत अथवा यों कहिये कि जैनाभिमत भेदाभेदभाव का प्रतिपादन किया है । अभिधान और अभिधेय को कथञ्चित भिम्न और कथंचित् अभिन्न बताते हुए आचार्य ने 'वृक्ष' शब्द के छः भाषाओं में पर्याय दिये हैं : सक्कयं जहा वृक्ष इत्यादि, पागतं जहा रुक्खो इत्यादि । देशाभिधानं च प्रतीत्य अनेकाभिधानं भवति जधा ओदणो मागधाणं करो लाडाणं चोरो दमिलाणं इडाकू अंधाणं । संस्कृत में जिसे वृक्ष कहते हैं वही प्राकृत में रुक्ख, मगध देश में ओदण, लाट में कूर, दमिलतमिल में चोर और अंध-आन्ध्र में इडाकु कहा जाता है। ___कर्म-बन्ध की चर्चा करते हुए एक जगह चूणिकार ने विशेषावश्यकभाष्य तथा कर्मप्रकृति का उल्लेख किया है : वित्थरेण जहा विसेसावस्सगभासे सामित्तं चेव सव्वपगडीणं को केवतियं बंधइ खवेइ वा, कत्तियं को उ ति जहा कम्मपगडीये। इसी प्रकार प्रस्तुत चूणि में महाकल्प और गोविन्द नियुक्ति का भी उल्लेख है : तत्थ नाणे महाकप्पसुयादीणं अट्ठाए । दंसणे गोविन्दनिज्जुत्तादीण।
चूणि के प्रारम्भ की भाँति अन्त में भी चूर्णिकार के नाम का कोई उल्लेख अथवा निर्देश नहीं है। अन्त में केवल इतना ही उल्लेख है : कल्पचूर्णि समाप्ता । ग्रन्थाग्रं ५३०० प्रत्यक्षरगणनयानिर्णीतम् ।" ऐसी दशा में किसी अन्य निश्चित प्रमाण के अभाव में चूर्णिकार के नाम का असंदिग्ध निर्णय करना अशक्य प्रतीत होता है ।
१. पृ० १७. २. पृ० २५. ३. पृ० ३७. ४. पृ० १३८३. ५. पृ० १६२०.
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