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________________ ३१३ निशीथ-विशेषचुणि गोशाला का अर्थ स्पष्ट किया गया है' और बताया गया है कि साधु इन स्थानों में अकेली स्त्री के साथ विहार आदि न करे । रात्रि के समय स्वजन आदि के साथ रहने का प्रतिषेध करते हुए आचार्य कहते हैं कि जो साधु स्वजन, अस्वजन, श्रावक, अश्रावक आदि के साथ अर्ध रात्रि अथवा चतुर्थांश रात्रि अथवा पूर्ण रात्रि पर्यन्त रहता है अथवा रहने वाले का समर्थन करता है उसके लिए चतुर्गुरु प्रायश्चित्त है। इसी प्रकार रात्रि के समय भोजन के अन्वेषण, ग्रहण आदि के लिए भी प्रायश्चित्त का विधान किया गया । नवम उद्देश : ___अष्टम उद्देश के अन्तिम सूत्र में भोजन अर्थात् पिण्ड का विचार किया गया है । नवम उद्देश के प्रारंभ में भी इसी विषय पर थोड़ा-सा प्रकाश डाला गया है । 'जे भिक्खू रायपिंडं गेण्हइ"' 'जे भिक्खू रायपिंडं भुजइ." (सू० १-२) का व्याख्यान करते हुए चूर्णिकार इस बात का विचार करते हैं कि साधु को किस प्रकार के राजा के यहां से पिण्ड ग्रहण नहीं करना चाहिए ? जो मूर्धाभिषिक्त है अर्थात् जिसका प्रधानरूप से अभिषेक किया गया है तथा जो सेनापति, अमात्य, पुरोहित, श्रेष्ठि और सार्थवाह सहित राज्य का भोग करता है उसका पिण्ड साधु के लिए वर्जित है। शेष राजाओं के विषय में निषेध का एकान्त नियम नहीं है अर्थात् जहाँ दोष प्रतीत हो वहाँ का पिण्ड वजित है, जहाँ दोष न हो वहाँ का ग्रहणीय है । राजपिण्ड आठ प्रकार का है जिसमें भोजन के सिवाय अन्य वस्तुओं का भी समावेश है । वे आठ प्रकार ये हैं : चार प्रकार का आहार-अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तथा वस्त्र, पात्र, कंबल और पादपोंछनक । ___साधु को राजा के अन्तःपुर में प्रवेश करने की मनाही करते हुए आचार्य ने तीन प्रकार के अन्तःपुरों का वर्णन किया है : जीर्णान्तःपुर, नवान्तःपुर और कन्यकान्तःपुर । जिनका यौवन नष्ट हो जाता है तथा जो भोग के अयोग्य हो जाती हैं वे स्त्रियाँ जीर्णान्तःपुर में रहती है। जिनमें यौवन विद्यमान है तथा जो भोग के काम में ली जाती हैं वे नवान्तःपुर में वास करती हैं। राजकन्यायें जब तक यौवन को प्राप्त नहीं होती है तब तक उनका संग्रह कन्यकान्तःपुर में किया जाता है । इनमें से प्रत्येक के क्षेत्र की दृष्टि से दो भेद किये जाते हैं : स्वस्थानस्थ और परस्थानस्थ । स्वस्थानस्थ का अर्थ है राजगृह में ही रहनेवाली । पर १. पृ. ४३३. २. पृ. ४४१. ३. पृ. ४४९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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