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________________ निशीथ-विशेषचूर्णि ३११ सुत्तत्थो ।' मातृसमूह अर्थात् माताओं के समान नारियों के वृंद को मातृग्राममाउग्गाम कहते हैं। अथवा सामान्य स्त्री-वर्ग को माउग्गाम कहना चाहिए जैसा कि मराठी में स्त्री को माउग्गाम कहा जाता है। मिथुनभाव अथवा मिथुनकम को मैथुन--मेहुण कहते हैं । पडिया-प्रतिज्ञा का अर्थ है मैथुनसेवन की प्रतिज्ञा । विण्णवणा-विज्ञापना का अर्थ है प्रार्थना । जो साधु मैथुनसेवन की कामना से किसी स्त्री से प्रार्थना करता है उसके लिए चातुर्मासिक गुरु प्रायश्चित्त का विधान है। ___ मातृग्राम तीन प्रकार का है : दिव्य, मानुष और तिर्यक् । इनमें से प्रत्येक के दो भेद है : देहयुक्त और प्रतिमायुक्त । देहयुक्त के पुनः दो भेद हैं : सजीव और निर्जीव । प्रतिमायुक्त भी दो प्रकार का है : सन्निहित और असन्निहित । विज्ञापना दो प्रकार की होती है : अवभाषणता-प्रार्थना और तद्भावासेवनतामैथुनासेवन । आचार्य ने इन भेद-प्रभेदों का विस्तृत विवेचन किया है । __ 'जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहणवडियाए लेहं लिहित....' (सू. १३) की व्याख्या करते हुए चर्णिकार ने कामियों के प्रेम-पत्र-लेखन का विश्लेषण किया है और बताया है कि लेख दो प्रकार का होता है : छन्न अर्थात् अप्रकाशित और प्रकट अर्थात् प्रकाशित । छन्न लेख तीन प्रकार का है : लिपिछन्न, भाषाछन्ना और अर्थछन्न । आचार्य ने इनका स्वरूप बताया है। उद्देश के अन्त में यह बताया गया है कि जो बातें पुरुषों के लिए कही गई हैं उन्हीं का स्त्रियों के लिए भी उपयोग कर लेना चाहिए । भिक्षु के स्थान पर भिक्षुणी रख कर मातृग्राम की जगह पितृग्राम का प्रयोग कर लेना चाहिए । जैसा कि चूर्णिकार कहते हैं : पुरिसाणं जो गमो इत्थीवग्गे भणितो जहा'भिक्खू माउग्गाम मेहुणवडियाए । विण्णवेति' एस इत्थीणं पुरिसवग्गे वत्तव्यो-'जा भिक्खुणी वि पिउग्गामं मेहुणवडियाए विण्णवेइ....।' सप्तम उद्देश : षष्ठ उद्देश के अंतिम सूत्र में विकृत आहार का निषेध किया गया है। यह निषेध आभ्यंतर आहार की दृष्टि से है । सप्तम उद्देश के प्रथम सूत्र में कामी भिक्षु के लिए इस बात का निषेध किया गया है कि पत्र-पुष्पादि की मालाएं न तो स्वयं बनाए, न औरों से बनवाए इत्यादि । यह निषेध काम के बाह्य आहार की दृष्टि से है। इसी प्रकार कुंडल, मुक्तावली, कनकावली आदि के बनाने, धारण करने आदि का भी आगे के सूत्रों में निषेध किया गया है । चूणिकार ने कुंडल आदि का स्वरूप इस प्रकार बताया है : कूडलं कण्णाभरणं, १. पृ ३७१. २. पृ. ३७१-२. ३८५. ४. पृ. ३९४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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