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________________ प्रास्ताविक व्यवहारभाष्य : यह भाष्य भी साधुओं के आचार से सम्बन्धित है । इसमें भी बृहत्कल्पलघुभाष्य की ही भांति प्रारंभ में पीठिका है । पीठिका के प्रारम्भ में व्यवहार, व्यवहारी एवं व्यवहर्तव्य का स्वरूप बताया गया है। व्यवहार में दोषों की संभावना को दृष्टि में रखते हए प्रायश्चित्त का अर्थ, भेद, निमित्त आदि दृष्टियों से व्याख्यान किया गया है। बीच-बीच में अनेक प्रकार के दृष्टान्त भी दिये गये हैं। पीठिका के बाद सूत्र-स्पशिक नियुक्ति का व्याख्यान प्रारंभ होता है । प्रथम उद्देश की व्याख्या में भिक्षु, मास, परिहार, स्थान, प्रतिसेवना, आलोचना आदि पदों का निक्षेपपूर्वक विवेचन किया गया है। आधाकर्म आदि से सम्बन्धित अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार के लिए विभिन्न प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। अतिक्रम के लिए मासगुरु, व्यतिक्रम के लिए मासगुरु और काललघु, अतिचार के लिए तपोगुरु और कालगुरु तथा अनाचार के लिए चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का विधान है। प्रायश्चित्त से मूलगुण एवं उत्तरगुण दोनों ही परिशुद्ध होते हैं। इनकी परिशुद्धि से ही चारित्र की शुद्धि होती है । पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, तप, प्रतिमा और अभिग्रह उत्तरगुणान्तर्गत हैं। इनके क्रमशः ४२, ८, २५, १२, १२ और ४ भेद हैं। प्रायश्चित्त करने वाले पुरुष दो प्रकार के होते हैं : निर्गत और वर्तमान । जो प्रायश्चित्त से अतिक्रान्त हैं वे निर्गत हैं । जो प्रायश्चित्त में विद्यमान हैं वे वर्तमान हैं। प्रायश्चित्तार्ह अर्थात् प्रायश्चित्त के योग्य पुरुष चार प्रकार के होते हैं : उभयतर, आत्मतर, परतर और अन्यतर । जो स्वयं तप करता हुआ दूसरों की सेवा भी कर सकता है वह उभयतर है। जो केवल तप ही कर सकता है वह आत्मतर है । जो केवल सेवा ही कर सकता है वह परतर है । जो तप और सेवा इन दोनों में से किसी एक समय में एक का ही सेवन कर सकता है वह अन्यतर है। शिथिलतावश गच्छ छोड़ कर पुनः गच्छ में सम्मिलित होने वाले साधु के लिए विविध प्रायश्चित्तों का विधान करते हुए भाष्यकार ने पार्श्वस्थ, यथाच्छन्द, कुशील, अवसन्न तथा संसक्त के स्वरूप पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला है। पार्श्वस्थ दो प्रकार के होते हैं : देशतः पार्श्वस्थ और सर्वतः पार्श्वस्थ । सर्वतः पार्श्वस्थ के तीन भेद हैं : पावस्थ, प्रास्वस्थ और पाशस्थ । जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि के पार्श्व अर्थात् समीप-तट पर है वह पार्श्वस्थ है। जो ज्ञानादि के प्रति स्वस्थ भाव रखते हुए भी तद्विषयक उद्यम से दूर रहता है वह प्रास्वस्थ है। जो मिथ्यात्व आदि पाशों में स्थित है वह पाशस्थ है । जो स्वयं परिभ्रष्ट है तथा दूसरों को भी भ्रष्टाचार की शिक्षा देता है वह यथाच्छन्द-इच्छाछन्द है। जो ज्ञानाचार आदि की विराधना करता है वह कुशील है। अवसन्न देशतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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