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सप्तम प्रकरण
आचारांगचूर्णि
इस चूर्ण में प्राय: उन्हीं विषयों का विवेचन है जो आचारांग - नियुक्ति में हैं । नियुक्ति की गाथाओं के आधार पर ही यह चूर्णि लिखी गई है अतः ऐसा होना स्वाभाविक है । इसमें वर्णित विषयों में से कुछ के नामों का निर्देश करना अप्रासंगिक न होगा । प्रथम श्रुतस्कन्ध की चूर्ण में मुख्यरूप से निम्न विषयों का व्याख्यान किया गया है : अनुयोग, अंग, आचार, ब्रह्म, वर्ण, आचरण, शस्त्र, परिज्ञा, संज्ञा, दिक्, सम्यक्त्व, योनि, कर्म, पृथ्वी आदि काय, लोक, विजय, गुणस्थान, परिताप, विहार, रति, अरति, लोभ, जुगुप्सा, गोत्र, ज्ञाति, जातिमरण, एषणा, देशना, बन्ध-मोक्ष, शीतोष्णादि परीषह, तत्त्वार्थश्रद्धा, जीवरक्षा, अचेलत्व, मरण, संलेखना, समनोज्ञत्व, यामत्रय, त्रिवस्त्रता, वीरदीक्षा, देवदृष्य, सवस्त्रता । चूर्णिकार ने भी निक्षेपपद्धति का ही आधार लिया है ।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध की व्याख्या करते हुए चूर्णिकार ने विषयों का विवेचन किया है : अग्र, प्राणसंसक्त, पिण्डेषणा, वस्त्र, पात्र, अवग्रहसप्तक. सप्तसप्तक, भावना, विमुक्ति । चूंकि आचारांगसूत्र का मूल प्रयोजन श्रमणों के आचार-विचार की प्रतिष्ठा करना है अतः प्रत्येक विषय का प्रतिपादन इसी प्रयोजन को दृष्टि में रखते हुए किया गया है
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उद्धृत किये गये कुछ श्लोक यहाँ
प्राकृतप्रधान प्रस्तुत चूर्णि में यत्र-तत्र संस्कृत के श्लोक भी हैं । इनके मूल स्थल की खोज न करते हुए उदाहरण के रूप में उद्धृत किये जाते हैं । आगम के प्रामाण्य की पुष्टि के लिए निम्न श्लोक उद्धृत किया गया है :
जिनेन्द्रवचनं
सूक्ष्म हेतुभियंदि
गृह्यते ।
आज्ञया तद्ग्रहीतव्यं नान्यथावादिनो जिनाः ॥
मुख्यरूप से निम्न शय्या, ईर्ष्या, भाषा,
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- आचारांगचूर्णि, पृ० २०. स्वजन से भी धन अधिक प्यारा होता है, इसका समर्थन करते हुए कहा गया है :
१. श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेतांबर संस्था, रतलाम, सन् १९४१.
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