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________________ षष्ठ प्रकरण उत्तराध्ययनचूर्णि यह चूणि' भी नियुक्त्यनुसारी है तथा संस्कृतमिश्रित प्राकृत में लिखी गई. है । इसमें संयोग, पुद्गलबन्ध, संस्थान, विनय, क्रोधवारण, अनुशासन, परीषह, धर्मविघ्न, मरण, निग्रंथपंचक, भयसप्तक, ज्ञानक्रियैकान्त आदि विषयों पर सोदाहरण प्रकाश डाला गया है। स्त्रीपरीषह का विवेचन करते हुए आचार्य ने नारीस्वभाव की कड़ी आलोचना की है और इस प्रसंग पर निम्नलिखित दो श्लोक भी उद्धृत किये हैं : एता हसति च रुदंति च अर्थहेतोविश्वासयंति च परं न च विश्वसंति । तस्मान्नरेण कुलशीलसमन्वितेन, नार्यः स्मशानसुमना इव वर्जनीयाः ।। १॥ समुद्रवीचीचपलस्वभावाः, संध्याभ्ररेखेव मुहूर्तरागाः। स्त्रियः कृतार्थाः पुरुषं निरर्थक, नीपीडितालक्त (क) वत् त्यजति ।।२॥ -उत्तराध्ययनचूणि, पृ. ६५. हरिकेशीय अध्ययन की चूणि में आचार्य ने अब्राह्मण के लिए निषिद्ध बातों की ओर निर्देश करते हुए शूद्र के लिए निम्न श्लोक उद्धृत किया है : न शूद्राय बलिं दद्यान्नोच्छिष्टं न हविः कृतम् । न चास्योपदिशेद् धर्म, न चास्य व्रतमादिशेत् ।। -वही, पृ. २०५. चूर्णिकार ने चूर्णि के अन्त में अपना परिचय देते हुए स्वयं को वाणिज्यकुलीन, कोटिकगणीय, वज्रशाखी गोपालगणिमहत्तर का शिष्य बताया है । वे गाथाएँ इस प्रकार हैं : वाणिजकुलसंभूओ कोडियगणिओ उ वयरसाहीतो। गोवालियमहत्तरओ, विक्खाओ आसि लोगंमि ॥१॥ ससमयपरसमयविऊ, ओयस्सी दित्तिमं सुगंभीरो । सीसगणसंपरिवुडो, वक्खाणरतिप्पिओ आसी।। २।। तेसिं सोसेण इमं, उत्तरज्झयणाण चुण्णिखंडं तु । रइयं अणुग्गहत्थं, सीसाणं मंदबुद्धीणं ॥ ३ ॥ १. श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, सन् १९३३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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