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________________ आवश्यकचूर्णि २८१ पंचम अध्ययन कायोत्सर्ग को व्याख्या के प्रारंभ में व्रणचिकित्सा ( वणतिगिच्छा ) का प्रतिपादन किया गया है और कहा गया है कि व्रण दो प्रकार का होता है : द्रव्यव्रण और भावव्रण । द्रव्यवण की औषधादि से चिकित्सा होती है । भावव्रण अतिचाररूप है जिसकी चिकित्सा प्रायश्चित्त से होती है । वह प्रायश्चित्त दस प्रकार का है : आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक । चूणि का मूल पाठ इस प्रकार है : सो य वणो दुविधो-दव्वे भावे य, दव्ववणो ओसहादोहिं तिगिच्छिज्जति, भाववणो संजमातियारो तस्स पायच्छित्तेण तिगिच्छणा, एतेणावसरेण पायच्छित्तं परूविज्जति । वणतिगिच्छा अणगमो य, तं पायच्छित्तं दसविहं "।' दस प्रकार के प्रायश्चित्तों का विशद वर्णन जीतकल्प सूत्र में देखना चाहिए । कायोत्सर्ग में काय और उत्सर्ग दो पद है । काय का निक्षेप नाम आदि बारह प्रकार का है। उत्सर्ग का निक्षेप नाम आदि छः प्रकार का है। कायोत्सर्ग के दो भेद हैं : चेष्टाकायोत्सर्ग और अभिभवकायोत्सर्ग । अभिभवकायोत्सर्ग हार कर अथवा हरा कर किया जाता है । चेष्टाकायोत्सर्ग चेष्टा अर्थात् गमनादि प्रवृत्ति के कारण किया जाता है । हूणादि से पराजित होकर कायोत्सर्ग करना अभिभवकायोत्सर्ग है । गमनागमनादि के कारण जो कायोत्सर्ग किया जाता है वह चेष्टाकायोत्सर्ग है : सो पुण काउस्सग्गो दुविधोचेट्ठाकाउस्सग्गो य अभिभवकाउस्सग्गो य, अभिभवो णाम अभिभूतो वा परेण परं वा अभिभूय कुणति, परेणाभिभूतो, तथा हूणाीदहिं अभिभूतो सव्वं सरीरादि वोसिरामिति काउस्सग्गं करेति, परं वा अभिभूय काउस्सग्गं करेति, जथा तित्थगरो देवमणुयादिणो अणुलोमपडिलोमकारिणो भयादी पंच अभिभूय काउस्सग्गं कातुप्रतिज्ञां पूरेति, चेट्टाकाउस्सग्गो चेट्ठातो निप्फण्णो जथा गमणागमणादिसु काउस्सग्गो कीरति..."।२ कायोत्सर्ग के प्रशस्त और अप्रशस्त ये दो अथवा उच्छित आदि नौ भेद भी होते हैं। इन भेदों का वर्णन करने के बाद श्रुत, सिद्ध आदि की स्तुति का विवेचन किया गया है तथा क्षामणा को विधि पर प्रकाश डाला गया है । कायोत्सर्ग के दोष, फल आदि का वर्णन करते हुए पंचम अध्ययन का व्याख्यान समाप्त किया गया है। षष्ठ अध्ययन प्रत्याख्यान की चूणि में प्रत्याख्यान के भेद, श्रावक के भेद, सम्यक्त्व के अतिचार, स्थूलप्राणातिपातविरमण और उसके अतिचार, स्थूलमृषावादविरमण और उसके अतिचार, स्थूलअदत्तादानविरमण और उसके अतिचार, स्वदारसंतोष और परदारप्रत्याख्यान एवं तत्सम्बन्धी अतिचार, परिग्रहपरिमाण एवं तद्विषयक अतिचार, तीन गुणव्रत और उनके अतिचार, चार शिक्षाव्रत और १. पृ. २४६ २. पृ. २४८. ३. पृ. २४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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