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________________ २६२ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास संधान, २९. च्यवन, ३०. उपपात, ३१. निशीथ, ३२. व्यवहार, ३३. क्षेत्र, ३४. काल, ३५. उपधि, ३६. संभोग, ३७. लिंग, ३८. प्रतिसेवना, ३९. अनुवास, ४०. अनुपालना, ४१. अनुज्ञा, ४२. स्थापना । इसकी चार द्वारगाथाएं हैं जिनका भाष्यकार ने विवेचन किया है : दव्वे भावे तदुभय करणे वेरमणनेव साहारो। निव्वेस अंतर णयंतरे य ठिय अठिए चेव ॥२१९२॥ ठाण जिण थेर पज्जुसणमेव सुत्ते चरित्तमज्झयणे । उद्देस वायण पडिच्छणा य परियट्टणुप्पेहा ।।२१६३।। जायमजाए चिण्णमचिण्णे संधाणमेव चयणे य । उववाय णिसीहे या, ववहारे खेत्तकाले य ।।२१६४।। उवही संभोगे लिंगकप्प पडिसेवणा य अणुवासे । अणुपालणा अणुण्णा, ठवणाकप्पे य बोधव्वे ॥२१६५।। इस तरह पाँच प्रकार के कल्पों का विवेचन करने के बाद प्रस्तुत भाष्य जिसका कि नाम पंचकल्पमहाभाष्य है और जिसमें पंचकल्पलघुभाष्य का भी समावेश है, समाप्त होता है। प्रति के अन्त में भाष्य एवं भाष्यकार के नाम का इस प्रकार उल्लेख है : महत्पञ्चकल्पभाष्यं संघदासक्षमाश्रमणविरचितं समाप्तमिति । भाष्य का कलेवर-प्रमाण बताते हुए कहा गया है : गाहग्गेणं पंचवीससयाइं चउहत्तराई। सिलोयग्गाणं एगतीससयादि पंचत्तीसाणि । यह भाष्य २५७४ गाथाप्रमाण अथवा ३१३५ श्लोकप्रमाण है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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