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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास शेष द्वारों का वर्णन करते हुए भाष्यकार ने सूत्रस्पशिक नियुक्ति का व्याख्यान प्रारंभ किया। इसमें नमस्कार का उत्पत्ति, निक्षेप, पद, पदार्थ, प्ररूपणा, वस्तु, आक्षेप, प्रसिद्धि, क्रम, प्रयोजन और फल-इन ग्यारह द्वारों से विवेचन किया है। सिद्ध नमस्कार का व्याख्यान करते हुए आचार्य ने कर्मस्थिति, समुद्घात, शैलेशी अवस्था, ध्यान आदि के स्वरूप का भी पर्याप्त विवेचन किया है। सिद्ध का उपयोग साकार है अथवा निराकार, इसकी चर्चा करते हुए केवलज्ञान और केवलदर्शन के भेद और अभेद का विचार किया है। केवलज्ञान और केवलदर्शन क्रमशः होते हैं या युगपद्, इस प्रश्न पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला है । भाष्यकार ने इस मत का समर्थन किया है कि केवली को भी एक-साथ दो उपयोग नहीं हो सकते अर्थात् केवलज्ञान और केवलदर्शन भी क्रमशः ही होते हैं, युगपद् नहीं। नमस्कार-भाष्य के बाद करेमि भंते' इत्यादि सामायिक-सूत्र के मूल पदों का व्याख्यान है । इस प्रकार प्रस्तुत भाष्य में जैन आचार-विचार के मूलभूत समस्त तत्त्वों का सुव्यवस्थित एवं सुप्ररूपित संग्रह कर लिया है, यह सुस्पष्ट है। इसमें गढतम दार्शनिक मान्यता से लेकर सूक्ष्मतम आचारविषयक विधि-विधान का संक्षिप्त किन्तु पर्याप्त विवेचन है । जीतकल्पभाष्य : प्रस्तुत भाष्य, भाष्यकार जिनभद्र की अपनी ही कृति जीतकल्पसूत्र पर है। इसमें बृहद्कल्प-लघुभाष्य, व्यवहारभाष्य, पंचकल्प-महाभाष्य, पिण्डनियुक्ति आदि ग्रन्थों की अनेक गाथाएँ अक्षरशः उद्धृत हैं। ऐसी स्थिति में इसे एक संग्रह-ग्रन्थ मानना भी संभवतः उचित ही है । इसमें प्रायश्चित्त के विधि-विधान की मुख्यता है । प्रायश्चित्त का शब्दार्थ करते हुए भाष्यकार ने लिखा है जो पाप का छेद करता है वह पायच्छित्त-प्रायश्चित्त है अथवा प्रायः जिससे चित्त शुद्ध होता है वह पच्छित-प्रायश्चित्त है । जीतकल्पाभिमत जीत-व्यवहार का व्याख्यान करते हुए आचार्य ने आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत-इन पाँचों प्रकार के व्यवहार का विवेचन किया है। जो व्यवहार आचार्य-परंपरा से प्राप्त हो, उत्तम पुरुषों द्वारा अनुमत हो, बहुश्रुतों द्वारा सेवित हो वह जीत-व्यवहार है। इसका आधार आगमादि नहीं अपितु परंपरा है। प्रायश्चित्त का विवेचन करते हुए भाष्यकार ने प्रायश्चित्त के अठारह, बत्तीस एवं छत्तीस स्थानों का निरूपण किया है । प्रायश्चित्तदाताओं की योग्यता-अयोग्यता का विचार करते हुए आचार्य ने बताया है कि प्रायश्चित्त देने की योग्यता रखने वाले केवली अथवा चतुर्दशपूर्वधर का वर्तमान युग में अभाव होने पर भी कल्प ( बृहत्कल्प ), प्रकल्प (निशीथ ) तथा व्यवहार के आधार पर प्रायश्चित्तदान की क्रिया सरलतापूर्वक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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