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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
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किया गया है जो जीतकल्पभाष्य में उपलब्ध है ।' प्रतिसेवना, संयोजना, आरोपणा और परिकुञ्चना-इन चारों के लिए चार प्रकार के प्रायश्चित्त बताये गये हैं । " प्रतिसेवना आदि के स्वरूप तथा तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्तों का अनेक प्रकार के भेदप्रभेदों के साथ विचार किया गया है । बृहत्कल्पभाष्यकार की भाँति व्यवहारभाष्यकार ने भी अनेक बातों का दृष्टान्तपूर्वक स्पष्टीकरण किया है ।
प्रथम उद्देश :
पीठिका की समाप्ति के बाद आचार्य सूत्र स्पर्शिक नियुक्ति का व्याख्यान प्रारम्भ करते हैं । प्रलम्ब आदि के सम्बन्ध में आचार्य ने संकेत किया है कि कल्प नामक अध्ययन में जिस प्रकार इनका निषेध किया गया है उसी प्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिए । प्रथम सूत्र में आने वाले 'भिक्षु' शब्द का नाम, स्थापना, द्रव्य और भावदृष्टि से विचार किया गया है ।" 'मास' शब्द का नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावनिक्षेप से प्ररूपण किया गया है और बताया गया है कि प्रस्तुत अधिकार कालमास का है ।" ' परिहार' शब्द का निम्न दृष्टियों से विवेचन किया गया है : १. नाम, २. स्थापना, ३. द्रव्य, ४. परिरय, ५. परिहरण, ६. वर्जन, ७. अनुग्रह, ८. आपन्न. ९. शुद्ध । इसी प्रकार 'स्थान', 'प्रतिसेवना', 'आलोचना' आदि पदों की व्याख्या की गई है । आलोचना की विधि की ओर निर्देश करते हुए आचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार एक छोटा बालक अपने माता-पिता के सामने सरल भाव से अपने मन की सब बातें रख देता है उसी प्रकार आलोचक को भी सरल भाव से अपने गुरु के समक्ष अपने प्रत्येक प्रकार के अपराध को रख देना चाहिए । ऐसा करने से उसमें आर्जव, विनय, निर्मलता, निःशल्यता आदि अनेक गुणों की वृद्धि होती है ।" प्रायश्चित्त के विविध विधानों की ओर संकेत करते हुए इस बात का प्रतिपादन किया गया है. कि कपटपूर्वक आलोचना करनेवाले के लिए कठोर प्रायश्चित्त का आदेश है ।
पावं छिदइ जम्हा, पायच्छित्तं तु भन्नए तेणं । पाएण वा विचित्तं, विसोहए तेण पच्छित्तं ।।
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-व्यवहारभाष्य,
पावं छिदति जम्हा, पायच्छित्तं ति भण्णते तेणं । पायेण वा विचित्तं, सोहयई तेण पच्छित्तं ॥
- जीतकल्पभाष्य, ५.
२. गा० ३६. ३. गा० ३७-१८४. ४. द्वितीय विभाग : गा० २. ५. गा० ३-१२. ६. गा० १३-२६. ७. गा० २७ ९ ८. गा० १३४.
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