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बृहत्कल्प-लघुभाष्य से गच्छ में रहने वाले भिक्षु आदि को शान्त करने की विधि, शान्त न होने वाले को लगने वाले दोष, प्रायश्चित्त आदि ।
३. संस्तृतनिर्विचिकित्सप्रकृतस्त्र-सशक्त अथवा अशक्त भिक्षु आदि सूर्य के उदय और अस्ताभाव के प्रति निःशंक होकर आहार आदि ग्रहण करते हों और बाद में ऐसा मालूम हो कि सूर्योदय हुआ ही नहीं है अथवा सूर्यास्त हो गया है। ऐसी दशा में आहार आदि का त्याग कर देने पर उनकी रात्रिभोजनविरति अखंडित ही रहती है। जो सूर्योदय और सूर्यास्त के प्रति शंकाशील होकर आहारादि ग्रहण करते हैं उनकी रात्रिभोजनविरति खंडित होती है--इस सिद्धान्त का प्रतिपादन ।
४. उद्गारप्रकृतस्त्र-भिक्षु, आचार्य आदि सम्बन्धी उद्गार--वमनादि विषयक दोष, प्रायश्चित्त आदि, उद्गार के कारण, उद्गार की दृष्टि से भोजन विषयक विविध आदेश, तद्विषयक अपवाद आदि ।
५. आहारविधिप्रकृतसूत्र-जिस प्रदेश में आहार, जल आदि जीवादि से संसक्त ही मिलते हों उस प्रदेश में जाने का विचार, प्रयत्न आदि करने से लगने वाले दोष, प्रायश्चित्त आदि, अशिव, दुर्भिक्ष आदि कारणों से ऐसे प्रदेश में जाने का प्रसंग आने पर तद्विषयक विविध यतनाएँ ।
६. पानकविधिप्रकृतसूत्र-पानक अर्थात् पानी के ग्रहण की विधि, उसके परिष्ठापन की विधि, तद्विषयक अपवाद आदि ।"
७. ब्रह्मरक्षाप्रकृतसूत्र---पशु-पक्षी के स्पर्श आदि से संभावित दोष, प्रायश्चित्त आदि, अकेली रहने वाली निर्ग्रन्थी को लगने वाले दोष, प्रायश्चित्त, अपवाद आदि, नग्न निग्रंन्थी को लगने वाले दोष आदि, पावरहित निर्ग्रन्थी को लगने वाले दोष आदि, निर्ग्रन्थी के लिए व्युत्सृष्ट काय की अकल्प्यता, निर्ग्रन्थी के लिए ग्राम, नगर आदि के बाहर आतापना लेने का निषेध, जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट आतापना का स्वरूप, निर्ग्रन्थी के लिए उपयुक्त आतापनाएँ, स्थानायत, प्रतिमास्थित, निषद्या, उत्कटिकासन, वीरासन, दण्डासन, लगण्डशायी, अवाङ्मुख, उत्तान, आम्रकुब्ज, एकपार्श्वशायी आदि आसनों का स्वरूप और निम्रन्थियों के लिए तद्विषयक विधि-निषेध, निर्ग्रन्थियों के लिए आकुंचनपट्ट के उपयोग का निषेध, निर्ग्रन्थियों के लिए सावश्रय आसन, सविषाण पीठफलक, सवन्त अलाबु, सवन्त पात्रकेसरिका और दारुदण्डक के उपयोग का प्रतिषेध ।।
१. गा० ५७२६-५७८३. ३. गा० ५८२९-५८६०. ५. गा० ५८९७-५९१८.
२. गा० ५७८४-५८२८. ४. गा० ५८६१-५८९६. ६. गा० ५९१९-५९७५.
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