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________________ २२२ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास स्कन्धकरणी; जिनकल्पिक, स्थविरकलिक और श्रमणियों के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट उपधि का विभाग इत्यादि ।' अवग्रहानन्तक-अवग्रहपट्टकप्रकृतसूत्र : ___ निर्ग्रन्थियों को अवग्रहानन्तक और अवग्रहपटक नहीं रखने से अनेक दोष लगते हैं। इसके विषय में कुछ अपवाद भी हैं। निर्ग्रन्थियों को हमेशा पूरे वस्त्रों सहित विधिपूर्वक बाहर निकलना चाहिए । अविधिपूर्वक बाहर निकलने से लगने वाले दोषों का निरूपण करते हुए भाष्यकार ने नर्तकी आदि के उदाहरण दिए हैं । धर्षित-अपहृत निग्रंन्थी के परिपालन की विधि का निर्देश करते हुए उसका अवर्णवाद-अवहेलना आदि करने वाले के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया है। इसी प्रसंग पर आचार्य ने यह भी बताया है कि पुरुषसंसर्ग के अभाव में भी पांच कारणों से गर्भाधान हो सकता है । वे पाँच कारण ये हैं : १. दुर्विवृत एवं दुनिषण्ण स्त्री की योनि में पुरुषनिसृष्ट शुक्रपुद्गल किसी प्रकार प्रविष्ट हो जाएँ, २. स्त्री स्वयं एवं पुत्रकामना से उन्हें अपनी योनि में प्रवेश कराए, ३. अन्य कोई उन्हें उसकी योनि में रख दे, ४. वस्त्र के संसर्ग से शुक्रपुद्गल स्त्री-योनि में प्रविष्ट हो जाएँ, ५. उदकाचमन से स्त्री के भीतर शुक्रपुद्गल प्रविष्ट हो जाएं। निश्राप्रकृत एवं त्रिकृत्स्नप्रकृतसूत्र : जैसा कि पहले कहा जा चुका है, भिक्षा के लिए गई हुई निर्ग्रन्थी को वस्त्र आदि का ग्रहण करना हो तो प्रवर्तिनी की निश्रा में करना चाहिए । यदि प्रवर्तिनी साथ में न हो तो उस क्षेत्र में जो आचार्य आदि हों उनको निश्रा में करना चाहिए। त्रिकृत्स्नप्रकृतसूत्र की व्याख्या में इस विधान का प्रतिपादन किया गया है कि प्रथम दीक्षा ग्रहण करने वाले श्रमण के लिए रजोहरण, गोच्छक और प्रतिग्रहरूप तीन प्रकार को उपधि का ग्रहण विहित है। यदि दीक्षा लेने वाले ने पहले भी दीक्षा ली हो तो वह नई उपधि लेकर प्रव्रजित नहीं हो सकता। इस प्रसंग पर आचार्य ने निम्न विषयों का विवेचन किया है : प्रथम दीक्षा ग्रहण करने वाले शिष्य के लिए चैत्य, आचार्य, उपाध्याय, भिक्षु आदि की पूजा-सत्कार की विधि; तद्विषयक विशोधिकोटि-अविशोधिकोटि का स्वरूप; रजोहरण, गोच्छक और प्रतिग्रहरूप त्रिकृत्स्न के क्रय के योग्य कुत्रिकापण; कुत्रिकापण वाले नगर; निर्ग्रन्थी के लिए चतुःकृत्स्न उपधि इत्यादि । १. गा० ३९१८-४०९९. २. गा० ४१००-४१४७. ३. गा० ४१४८-४१८८. ४. गा० ४१८९-४२३४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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