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________________ २१५ बृहत्कल्प-लघुभाष्य उपकरणादि को आचार्य के पास ले जाकर उपस्थित करना चाहिए तथा उनकी आज्ञा मिलने पर ही उनका उपयोग करना चाहिए ।' तृतीय और चतुर्थ सूत्र की व्याख्या में निर्ग्रन्थियों की दृष्टि से वस्त्रग्रहण आदि का विचार किया गया है । निर्ग्रन्थी गृहपतियों से मिलने वाले वस्त्र - पात्रादि प्रवर्तन की आज्ञा से ही अपने काम में ले सकती है । २ रात्रिभक्तप्रकृतसूत्र : निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थियों को रात्रि के समय अथवा विकाल में अशन-पानादि का ग्रहण नहीं कल्पता । प्रस्तुत सूत्र का विवेचन करते हुए भाष्यकार ने निम्न विषयों की चर्चा की है : 'रात्रि' और 'विकाल' पदों की व्याख्या; रात्रि में खाने-पीने से लगने वाले आज्ञाभंग, अनवस्था, मिथ्यात्व, संयमधिराधना आदि दोष; रात्रिभोजनविषयक 'दिवा गृहीतं दिवा भुक्तम्', 'दिवा गृहीतं रात्रौ भुक्तम्', 'रात्रौ गृहीतं दिवा भुक्तम्' और 'रात्रौ गृहीतं रात्रौ भुक्तम्' रूप चतुर्भङ्गी एवं तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त; रात्रिभोजन ग्रहणसम्बन्धी आपवादिक कारण; रुग्ण, क्षुधित, पिपासित, असहिष्णु, चन्द्रवेध अनशन आदि में सम्बन्धित अपवाद; अध्वगमन अर्थात् देशान्तरगमन की अनुज्ञा; अध्वगमनोपयोगी उपकरण; १. चर्मद्वार | तलिका, पुट, वर्ध, कोशक, कृत्ति, सिक्कक, कापोतिका आदि; २. लोह ग्रहणद्वार - पिप्पलक, सूची, आरी, नखहरणिका आदि, ३ नन्दीभाजनद्वार, ४. धर्मकरकद्वार; ५. परतीर्थिकोपकरणद्वार ; ६. गुलिकाद्वार ; ७ खोलद्वार; अध्वगमनोपयोगी उपकरण न लेने वाले के लिए प्रायश्चित्त; प्रयाण करते समय शकुनावलोकन; सिंहर्षदा, बृषभपर्षदा और मृगपर्षदा का स्वरूप; मार्ग में अन्न-जल प्राप्त न होने पर उसकी प्राप्ति की विधि और तद्विषयक द्वार - १. प्रतिसार्थद्वार, २. स्तेनपल्लीद्वार, ३. शून्यग्रामद्वार, ४. वृक्षादिप्रलोकनद्वार, ५. नन्दिद्वार, ६. द्विविधद्रव्यद्वार; उत्सगंरूप से रात्रि में संस्तारक, वसति आदि ग्रहण करने से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त; रात्रि में वसति आदि ग्रहण करने के आपवादिक कारण; गीतार्थ निर्ग्रन्थों के लिए वसति ग्रहण करने की विधि अगीतार्थ मिश्रित गीतार्थं निर्ग्रन्थों के लिए वसति ग्रहण की विधि; अंधेरे में वसति की प्रतिलेखना के लिए प्रकाश का उपयोग करने की विधि व यतनाएं; ग्रामादि के बाहर वसति ग्रहण करने के लिए यतनाएं; कुल, गण, संघ आदि की रक्षा के निमित्त लगने वाले अपराधों की निर्दोषता और तद्विषयक सिंहत्रिकघातक कृतकरण श्रमण का उदाहरण १. गा० २८१४. ३. गा० २८३६-२९६८. Jain Education International २. गा० २८१५-२८३५. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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