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________________ बृहत्कल्प-लघुभाष्य की निश्रा के अभाव में रहने का अवसर आने पर किस प्रकार के उपाश्रय में रहना चाहिए, इसका दिग्दर्शन कराते हुए आचार्य ने यह भी बताया है कि योग्य उपाश्रय के अभाव में वृषभों को किस प्रकार श्रमणियों की रक्षा करनी चाहिए और वे वृषभ किस प्रकार के सद्गुणों से युक्त होने चाहिए।' __ जहाँ तक श्रमणों का प्रश्न है, वे उत्सर्गरूप से सागारिक की निश्रा में नहीं रह सकते किन्तु अपवादरूप से वैसा कर सकते हैं । जो निर्ग्रन्थ बिना किसी विशेष कारण के सागारिक को निश्रा में रहते हैं उन्हें दोष लगता है जिसका प्रायश्चित्त करना पड़ता है । सागारिकोपाश्रयप्रकृतसूत्र : निग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के लिए सागारिक के सम्बन्ध वाले उपाश्रय में रहना वजित है। इस विषय पर चर्चा करते हुए भाष्यकार ने निम्नोक्त बातों का विवेचन किया है : सागारिक पद का निक्षेप, द्रव्य-सागारिक के रूप, आभरण, वस्त्र, अलंकार, भोजन, गंध, आतोद्य, नाट्य, नाटक, गीत आदि प्रकार और तत्संबन्धी दोष एवं प्रायश्चित्त, भावसागारिक का स्वरूप, अब्रह्मचर्य के हेतुभूत प्राजापत्य, कौटुम्बिक और दण्डिकपरिगृहीत देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी रूप का स्वरूप तथा उसके जवन्य, मध्यम और उत्कृष्ट प्रकार, देवप्रतिमा के विविध प्रकार, देवप्रतिमायुक्त उपाश्रयों में रहने से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त, देवता के सान्निध्यवाली प्रतिमाओं के प्रकार, मनुष्यप्रतिमा का स्वरूप, प्राजापत्य आदि दृष्टियों से विशेष विवरण, इस प्रकार की प्रतिमायुक्त वसति में ठहरने से लगने वाले दोष तथा तद्विषयक प्रायश्चित्त, तिर्यञ्चप्रतिमा का स्वरूप, भेद, तद्विषयक निवास-दोष और प्रायश्चित्त, मनुष्य के साथ मैथुन का सेवन करने वाले सिंहण का दृष्टान्त, सागारिकोपाश्रयसूत्र सम्बन्धी अपवाद और तत्सम्बन्धी यतनाएँ, सविकार पुरुष, पुरुषप्रकृति तथा स्त्रीप्रकृति वाले नपुंसक का स्वरूप, इनके मध्यस्थ, आमरणप्रिय, कांदर्पिक और काथिक भेद, इनके सम्बन्ध वाले उपाश्रयों में रहने से लगने वाले संयमविराधनादि दोष और प्रायश्चित्त इत्यादि । प्रतिबद्धशय्याप्रकृतसूत्र : प्रथम प्रतिबद्धशय्या सूत्र को व्याख्या करते हुए यह बताया गया है कि जिस उपाश्रय के समोप गृहस्थ रहते हों वहाँ निर्ग्रन्थों को नहीं रहना चाहिए । इसमें निम्न विषयों का समावेश किया गया है : 'प्रतिबद्ध' पद के निक्षेप, भावप्रतिबद्ध के प्रस्रवण, स्थान, रूप और शब्द ये चार भेद, द्रव्यप्रतिबद्ध-भाव १. गा० २४३४-२४४५. २. गा० २४४६-८. ३. गा० २४४९-२५८२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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