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________________ बृहत्कल्प- लघुभाष्य २०३ २. स्वगृहयति मिश्र, ३. स्वगृहपाषण्डमिश्र, ४. यावदर्थिक मिश्र, ५. क्रीतकृत, ६. पूतिकर्मिक, ७. आत्मार्थकृत; इनके अवांतर भेद-प्रभेद और एतद्विषयक विशोधि अविशोधि कोटियां | ७. अनुयानद्वार - तीथंकर आदि के समय जब सैकड़ों गच्छ एक साथ रहते हों तब आधाकर्मिकादि पिण्ड से बचना कैसे संभव है - इस प्रकार की शिष्य की शंका और उसका समाधान तथा प्रसंगवशात् अनुयान अर्थात् रथयात्रा का वर्णन, रथयात्रा देखने जाते समय मार्ग में लगनेवाले दोष, वहाँ पहुँच जानें पर लगनेवाले दोष, साधर्मिक चैत्य, मंगलचैत्य, शाश्वत चैत्य और भक्तिचैत्य, रथयात्रा के मेले में जानेवाले साधु को लगनेवाला आधाकर्मिक दोष, उद्गम दोष, नवदीक्षित का भ्रष्ट होना, स्त्री, नाटक आदि देखने से लगनेवाले दोष, स्त्री आदि के स्पर्श से लगनेवाले दोष, मंदिर आदि स्थानों में लगे हुए जाले, नीड़, छत्ते आदि को गिराने के लिए कहने न कहने से लगनेवाले दोष, पार्श्वस्थ आदि के क्षुल्लक शिष्यों को अलंकारविभूषित देखकर क्षुल्लक श्रमण पतित हो जाएँ अथवा पार्श्वस्थ साधुओं के पारस्परिक कलहों को निपटाने का कार्य करना पड़े उससे लगनेवाले दोष, रथयात्रा के मेले में साधुओं को जाने के विशेष कारण - चैत्यपूजा, राजा और श्रावक का विशेष निमंत्रण, वादी की पराजय, तप और धर्म का माहात्म्य-वर्धन, धर्मकथा और व्याख्यान, शंकित अथवा विस्मृत सूत्रार्थ का स्पष्टीकरण, गच्छ के आधारभूत योग्य शिष्य आदि की तलाश, तीर्थ प्रभावना, आचार्य, उपाध्याय, राज्योपद्रव आदि सम्बन्धी समाचार की प्राप्ति, कुल-गण-संघ आदि का कार्य, धर्म-रक्षा तथा इसी प्रकार के अन्य महत्त्व के कारण — रथयात्रा के मेले में रखने योग्य यतनाएँ, चैत्यपूजा, राजा आदि की प्रार्थना आदि कारणों से रथयात्रा के मेले में जानेवाले साधुओं को उपाश्रय आदि की प्रतिलेखना किस प्रकार करनी चाहिए, भिक्षाचर्या किस प्रकार करनी चाहिए, स्त्री, नाटक आदि के दर्शन का प्रसंग उपस्थित होने पर किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए, मंदिर में जा, नीड़ आदि होने पर किस प्रकार यतना रखनी चाहिए, क्षुल्लक शिष्य भ्रष्ट न होने पाएँ तथा पाश्वस्थ साधुओं के विवाद किस प्रकार निपट जाएँ इत्यादि । ८. पुरः कर्मद्वार - पुरःकर्म का अर्थ है भिक्षादान के पूर्व शीतल जल से दाता द्वारा स्वहस्त आदि का प्रक्षालन । इस द्वार की चर्चा करते समय निम्न दृष्टियों से विचार किया गया है : पुरःकर्म क्या है, पुरः कर्म दोष लगता है, पुर:कर्म किसलिए किया जाता है, पुरःकर्म और ( उदकार्द्र और पुरः कर्म में अप्काय का समारंभ तुल्य सूख जाने पर तो भिक्षा आदि का ग्रहण होता है किन्तु पुरःकर्म के सूख जाने पर होते हुए भी उदकार्द्र Jain Education International For Private & Personal Use Only किसे लगता है, कब उदकार्द्रदोष में अन्तर www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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