SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बृहत्कल्प-लघुभाष्य १९९ १. उत्तानकमल्लक, २. अवाङ्मुखमल्लक, ३. संपुटकमल्लक, ४. उत्तानकखण्डमल्लक, ५. अवाङमुखखण्डमल्लक, ६. सम्पुटखण्डमल्लक, ७. भित्ति, ८. पडालि, ९. वलभी, १०. अक्षाटक, ११ रुचक, १२. काश्यपक । २ 'मास' पद का विविध निक्षेपों से व्याख्यान करते हुए भाष्यकार ने नक्षत्रमास, चन्द्रमास, ऋतुमास, आदित्यमास और अभिवधितमास का स्वरूप बताया है । इसके बाद मासकल्पविहारियों का स्वरूप बताते हुए जिनकल्पिक स्थविरकल्पिक आदि के स्वरूप का विस्तृत वर्णन किया है। जिनकल्पिक : जिनकल्पिक की दीक्षा की दृष्टि से धर्म, धर्मोपदेशक और धर्मोपदेश के योग्य भवसिद्धिकादि जीवों का स्वरूप बताते हुए धर्मोपदेश की विधि और उसके दोषों का निरूपण किया गया है। जिनकल्पिक की शिक्षा का वर्णन करते हुए शास्त्राभ्यास से होने वाले आत्महित, परिज्ञा, भावसंवर, संवेग, निष्कम्पता, तप, निर्जरा, परदेशकत्व आदि गुणों को ओर संकेत किया गया है । जिनकल्पिक कब हो ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जिनकल्पिक जिन अर्थात् तीर्थंकर के समय में अथवा गणधर आदि केवलियों के समय में हो।४ इस प्रसंग का विशेष विस्तार करते हुए आचार्य ने तीर्थंकर के समवसरण (धर्मसभा) का वर्णन किया है। इस वर्णन में निम्न विषयों का परिचय दिया गया है : वैमानिक, ज्योतिष्क, भवनपति, व्यंतर आदि देव एक साथ एकत्रित हुए हों उस समय समवसरण की भूमि साफ करना, सुगन्धित पानी, पुष्प आदि की वर्षा बरसाना, समवसरण के प्राकार, द्वार, पताका, ध्वज, तोरण, चित्र, चेत्यवृक्ष, पीठिका, देवच्छन्दक, आसन, छत्र, चामर आदि की रचना और व्यवस्था, इन्द्र आदि महद्धिक देवों का अकेले ही समवसरण की रचना करना, समवसरण में तीर्थंकरों का किस समय किस दिशा से किस प्रकार प्रवेश होता है, वे किस दिशा में मुख रख कर उपदेश देते हैं, प्रमुख गणधर कहाँ बैठता है, अन्य दिशाओं में तीर्थंकरों के प्रतिबिम्ब कैसे होते हैं, गणधर, केवली, साधु, साध्वियाँ, देव, देवियाँ, पुरुष, स्त्रियाँ आदि समवसरण में कहाँ बैठते हैं अथवा खड़े रहते हैं, समवसरण में एकत्रित देव, मनुष्य, तिथंच आदि की मर्यादाएँ और पारस्परिक ईर्ष्या आदि का त्याग, तीर्थंकर की अमोघ देशना, धर्मोपदेश के प्रारम्भ में तीर्थंकरों द्वारा तीर्थ को नमस्कार और उसके कारण, समवसरण में श्रमणों के आगमन की दूरी, तीर्थकर, गणधर, आहारकशरीरी, अनुत्तरदेव, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि की रूप, संहनन, संस्थान, वर्ण, गति, सत्व, २. गा० १०९४-११११. ३. गा० ११४३-११७१. ४. गा० ११७२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy