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चतुर्थ प्रकरण बृहत्कल्प-लघुभाष्य
बृहत्कल्प-लघुभाष्य' के प्रणेता संघदासगणि क्षमाश्रमण हैं। इसमें बृहत्कल्प सूत्र के पदों का सुविस्तृत विवेचन किया गया है । लघुभाष्य होते हुए भी इसकी गाथा-संख्या ६४९० है । यह छ: उद्देशों में विभक्त है। इनके अतिरिक्त भाष्य के प्रारम्भ में एक विस्तृत पीठिका भी है जिसकी गाथा-संख्या ८०५ है। इस भाष्य में प्राचीन भारत की कुछ महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक सामग्री भी सुरक्षित है । डा० मोतीचन्द्र ने अपनी पुस्तक सार्थवाह (प्राचीन भारत की पथ-पद्धति )२ में इस भाष्य की कुछ सामग्री का 'यात्री और सार्थवाह' का परिचय देने की दृष्टि से उपयोग किया है। इसी प्रकार अन्य दृष्टियों से भी इस सामग्री का उपयोग हो सकता है । भाष्य के आगे दिये जानेवाले विस्तृत परिचय से इस बात का पता लग सकेगा कि इसमें प्राचीन भारतीय संस्कृति के इतिहास का कितना मसाला भरा पड़ा है। पीठिका :
विशेषावश्यक-भाष्य की ही भाँति इस भाष्य में भी प्रारम्भिक गाथाओं में मंगलवाद की चर्चा की गई है । 'मंगल' पद के निक्षेप, मंगलाचरण का प्रयोजन, आदि, मध्य और अन्त में मंगल करने की विधि आदि विषयों की चर्चा करने के बाद नन्दी-ज्ञानपंचक का विवेचन किया गया है। श्रतज्ञान के प्रसंग से सम्यक्त्वप्राप्ति के क्रम का विचार करते हुए औपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशमिक, वेदक और क्षायिक सम्यक्त्व का स्वरूप बताया गया है। __ अनुयोग का स्वरूप बताते हुए निक्षेप आदि बारह प्रकार के द्वारों से अनुयोग का विचार किया गया है। उनके नाम ये हैं : १. निक्षेप, २. एकाथिक,
१. नियुक्ति-लघुभाष्य-वृत्युपेत बृहत्कल्पसूत्र ( ६ भाग) : सम्पादक-मुनि चतुरविजय एवं पुण्यविजय; प्रकाशक-श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, सन् १९३३, १९३६, १९३६, १९३८, १९३८, १९४२.
२. सार्थवाह (प्राचीन भारत को पथ-पद्धति) : प्रकाशक-बिहार• राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना, सन् १९५३.
३. गा० ४-१३१.
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