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________________ ११. प्रास्ताविक इनमें से लघुभाष्य में ६४९० गाथाएं हैं। पंचकल्प-महाभाष्य की गाथा-संख्या २५७४ है। व्यवहारभाष्य में ४६२९ गाथाएँ हैं। निशीथभाष्य में लगभग ६५०० गाथाएँ हैं। जीतकल्पभाष्य में २६०६ गाथाएं है। ओधनियुक्ति पर दो भाष्य हैं। इनमें से लघुभाष्य में ३२२ तथा बृहद्भाष्य में २५१७ गाथाएं हैं । पिण्डनियुक्तिभाष्य में केवल ४६ गाथाएँ हैं । इस विशाल प्राकृत भाष्य-साहित्य का जैन साहित्य में और विशेषकर आगमिक साहित्य में अति महत्त्वपूर्ण स्थान है । पद्यबद्ध होने के कारण इसके महत्त्व में और भी वृद्धि हो जाता है। भाष्यकार: भाष्यकार के रूप में दो आचार्य प्रसिद्ध है : जिनभद्रगणि और संघदास-- गणि । विशेषावश्यकभाष्य और जीतकल्पभाष्य आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की कृतियां हैं। बृहत्कल्पलघुभाष्य और पंचकल्पमहाभाष्य संघदासगणि की रचनाएँ हैं । इन दो भाष्यकारों के अतिरिक्त अन्य किसी आगमिक भाष्यकार के नाम का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है । इतना निश्चित है कि इन दो भाष्यकारों के अतिरिक्त कम-से-कम दो भाष्यकार तो और हुए ही हैं जिनमें से एक व्यवहारभाष्य आदि के प्रणेता एवं दूसरे बृहत्कल्प-बृहद्भाष्य आदि के रचयिता हैं। विद्वानों के अनुमान के अनुसार बृहत्कल्प-बृहद्भाष्य के प्रणेता बृहत्कल्पचूर्णिकार तथा बृहत्कल्प-विशेषचूर्णिकार से भी पीछे हुए हैं। ये हरिभद्रसूरि के कुछ पूर्ववर्ती अथवा समकालीन हैं । व्यवहारभाष्य के प्रणेता विशेषावश्यकभाष्यकार आचार्य जिनभद्र के भी पूर्ववर्ती है । संघदासगणि भी आचार्य जिनभद्र के पूर्ववर्ती ही हैं। विशेषावश्यकभाष्य के प्रणेता आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का अपनी महत्त्वपूर्ण कृतियों के कारण जैन साहित्य के इतिहास में एक विशिष्ट स्थान है। ऐसा होते हुए भी उनके जीवन के सम्बन्ध में विशेष सामग्री उपलब्ध नहीं है। उनके जन्म, शिष्यत्व आदि के विषय में परस्पर विरोधी उल्लेख मिलते हैं। उनके सम्बन्ध में एक आश्चर्यजनक उल्लेख यह भी मिलता है कि वे हरिभद्रसूरि के पट्टधर शिष्य थे, जबकि हरिभद्रसूरि आचार्य जिनभद्र के लगभग सौ वर्ष बाद हुए हैं। आचार्य जिनभद्र वाचनाचार्य के रूप में भी प्रसिद्ध थे एवं उनके कुल का नाम निवृत्तिकुल था। उन्हें अधिकतर क्षमाश्रमण शब्द से ही सम्बोधित किया जाता था। वैसे वादी, क्षमाश्रमण, दिवाकर, वाचक, वाचनाचार्य आदि शब्द एकार्थक भी हैं। विविध उल्लेखों के आधार पर आचार्य जिनभद्र का उत्तरकाल वि० सं० ६५० के आसपास सिद्ध होता है। उन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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