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________________ जीतकल्पभाष्य १८९ देने की योग्यता वाले महापुरुष केवली तथा चौदहपूर्वधर इस युग में नहीं हैं, यह बात सच है किन्तु प्रायश्चित्त की विधि का मूल प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु में है और उसके आधार पर कल्प, प्रकल्प तथा व्यवहार ग्रन्थों का निर्माण हुआ है ।' ये ग्रन्थ तथा इनके ज्ञाता आज भी विद्यमान हैं । अतः प्रायश्चित्त का व्यवहार इन ग्रन्थों के आधार पर सरलतापूर्वक किया जा सकता है और इस प्रकार चारित्र को शुद्धि हो सकती है। प्रायश्चित्तदान की सापेक्षता : दस प्रकार के प्रायश्चित्त का नामोल्लेख करने के बाद प्रायश्चित्तदान का विभाग किया गया है तथा प्रायश्चित्तविधाताओं का सद्भाव सिद्ध किया गया है। सापेक्ष प्रायश्चित्तदान के लाभ और निरपेक्ष प्रायश्चित्तदान की हानि की ओर संकेत करते हुए कहा गया है कि प्रायश्चित्तदान में दाता को दयाभाव रखना चाहिए तथा जिसे प्रायश्चित्त देना हो उसकी शक्ति की ओर भी ध्यान रखना चाहिए। ऐसा होने पर ही प्रायश्चित्त का प्रयोजन सिद्ध होता है तथा प्रायश्चित्त करने वाले को सयम में दृढ़ता हो सकती है। ऐसा न करने से प्रायश्चित्त करने वाले में प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है और वह संयम में स्थिर होने के बजाय संयम का सर्वथा त्याग ही कर देता है । प्रायश्चित्त देने में इतना अधिक दयाभाव भी नहीं रखना चाहिए कि प्रायश्चित्त का विधान ही भंग हो जाए और दोषों की परम्परा इतनी अधिक बढ़ जाए कि चारित्रशुद्धि हो ही न सके । बिना प्रायश्चित्त के चारित्र स्थिर नहीं रह सकता । चारित्र के अभाव में तीर्थ चारित्रशून्य हो जाता है । चारित्रशून्यता से निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती । निर्वाणलाभ का अभाव हो जाने पर कोई दीक्षित भी नहीं होगा। दीक्षित साधुओं के अभाव में तीर्थ भी नहीं बनेगा। इस प्रकार प्रायश्चित्त के अभाव में तीर्थ टिक ही नहीं सकता। इसलिए जहाँ तक तीर्थ की स्थिति है वहाँ तक प्रायश्चित्त की परम्परा चलनी ही चाहिए।४ भक्तपरिज्ञा, इंगिनीमरण व पादपोपगमन : प्रायश्चित्त के विधान का विशेष समर्थन करते हुए भाष्यकार ने प्रसंगवशात् भक्तपरिज्ञा, इंगिनीमरण तथा पादपोपगमन-इन तीन प्रकार की मारणांतिक साधनाओंका विस्तृत वर्णन किया है। भक्तपरिज्ञा की विधि को ओर संकेत करते हुए निर्व्याघात और सव्याघातरूपी सपराक्रमभक्तपरिज्ञा के स्वरूप का निम्न द्वारों से विचार किया है : १. गणिनिस्सरण, २. श्रिति, ३. संलेखना, ४. अगीत, ५. असंविग्न, ६. एक, ७. आभोग, ८. अन्य, ९. अनापुच्छा, १. कल्प अर्थात् बृहत्कल्प; प्रकल्प अर्थात् निशीथ । २. गा० २५५-२७३. ३. गा० २७४-२९९. ४. गा० ३००-३१८.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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