SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय प्रकरण जीतकल्पभाष्य आचार्य जिनभद्र का दूसरा भाष्य जोतकल्प सूत्र पर है । यह सूत्र आचार्य की स्वयं की ही कृति है । इसमें १०३ प्राकृत गाथाएँ हैं जिनमें जीतव्यवहार के आधार पर दिए जाने वाले प्रायश्चित्तों का संक्षिप्त वर्णन है । मोक्ष के हेतुभूत चारित्र के साथ प्रायश्चित्त का विशेषरूप से सम्बन्ध है क्योंकि चारित्र के दोषों की शुद्धि का मुख्य आधार प्रायश्चित्त ही है। ऐसी दशा में मुमुक्ष के लिए प्रायश्चित्त का ज्ञान आवश्यक है । मूल सूत्र में आचार्य ने प्रायश्चित्त के आलोचना आदि दस भेद गिनाए हैं तथा प्रत्येक प्रायश्चित्त के अपराधस्थानों का निर्देश किया है और यह बताया है कि किस अपराध के लिए कौन सा प्रायश्चित्त करना चाहिए। आचार्य ने यह बताया है कि अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त चौदहपूर्वधर के समय तक दिए जाते थे अर्थात् चतुर्दशपूर्वधर आचार्य भद्रबाहु के समय तक ये प्रायश्चित्त प्रचलित थे । उसके बाद उनका विच्छेद हो गया। जीतकल्पभाष्य' उपर्युक्त सूत्र पर २६०६ गाथाओं में लिखा गया स्वोपज्ञ भाष्य है। इस भाष्य में बृहत्कल्प-लघु भाष्य, व्यवहारभाष्य, पंचकल्पमहाभाष्य, पिण्डनियुक्ति आदि ग्रंथों को अनेक गाथाएँ अक्षरशः मिलती हैं । इस तथ्य को दृष्टि में रखते हुए यह भी कहा जाता है कि प्रस्तुत भाष्यग्रंथ कल्पभाष्य आदि ग्रंथों की गाथाओं का संग्रहरूप ग्रंथ है ।२ जीतकल्पसूत्र के प्रणेता आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण हैं, यह निर्विवाद है। जीतकल्पभाष्य के कर्ता कौन हैं, इस प्रश्न का समाधान करते हुए यह कहा गया है कि प्रस्तुत भाष्य में भाष्यकार ने किसी भी स्थान पर अपने नाम का उल्लेख नहीं किया है। इसी प्रकार अन्यत्र भी ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर भाष्यकार के नाम का ठीक-ठीक निर्णय किया जा सके । ऐसी स्थिति में प्रस्तुत भाष्य को निम्न गाथा के आधार पर कुछ निर्णय किया जा सकता है : १. संशोधक-मुनि पुण्यविजय; प्रकाशक-बबलचंद्र केशवलाल मोदी, हाजापटेल की पोल, अहमदाबाद, वि० सं० १९९४. २. जीतकल्पसूत्र (स्वोपज्ञ भाष्यसहित) : प्रस्तावना, पृ० ४.५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy